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आगम और विज्ञान]
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नींद का प्रकरण
जैन आगम साहित्य में साधु दो प्रकार के बताए हैं।
(1) छद्मस्थ (2) केवली
जिस साधु को केवल-ज्ञान प्राप्त हो जाता है अर्थात् ज्ञान और दर्शन के कर्म-आवरण पूर्णतया हट जाते हैं, वे केवल-ज्ञानी कहलाते हैं। शेष साधु छद्मस्थ कहलाते हैं। कर्म-शास्त्रीय मीमांसा में नींद को, दर्शनावरणीय कर्म के उदय का कारण माना है। केवलज्ञानी के दर्शनावरणीय कर्म क्षय हो जाते हैं। अतः यह माना जाता रहा है कि केवलज्ञानी को नींद नहीं आनी चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञ ने इसकी सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि में वैज्ञानिक धारणा को प्रस्तुत किया है जो निम्न प्रकार से है। सैद्धान्तिक मत .. नींद के आधार पर छद्मस्थ और केवली के बीच भेदरेखा खींची गई है। कर्मशास्त्रीय विवेचना के अनुसार नींद का कारण दर्शनावरणीय कर्म का उदय है। चरक के अनुसार जब मन क्लान्त (निष्क्रिय) और इन्द्रियां क्रिया रहित होकर अपने-अपने विषयों से निवृत्त हो जाती हैं उस समय मनुष्य सोता है। दर्शनावरणीय कर्म का काम है चक्षु आदि इन्द्रिय-दर्शनों को आवृत्त करना। उनके आवृत्त होने पर नींद की स्थिति बनती है। निद्रा-विषयक कर्मशास्त्रीय सिद्धान्त और चरक के सिद्धान्त में सामंजस्य देखा जा सकता है।
वैज्ञानिक मत - पूरे निद्रा-समय को निद्रा-चक्रों में विभक्त किया जा सकता है। एक व्यक्ति का निद्रा-चक्र लगभग 90 मिनट में पूरा होता है। (8 घंटे सोने पर ऐसे 5 चक्र होंगे) एक निद्रा-चक्र दो भागों में पूरा होता है। इसका 70-80 प्रतिशत प्रथम भाग यानी लगभग 70 मिनट ‘नोन रैपिड आई मूवमेंट' में तथा लगभग 20-25 प्रतिशत रहा शेष समय यानी लगभग 20 मिनट रैपिड आई मूवमेंट' नींद में व्यतीत होता है। ‘नोन रैपिड आई मूवमेंट' (एनआरईएम) नींद विश्राम की अवस्था होती है जिसे चार अवस्थाओं में विभक्त किया जा सकता