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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
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आत्म-तत्त्व
भारतीय दर्शन में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण दिए हैं। यद्यपि आत्मा, इन्द्रिय - प्रत्यक्ष नहीं है फिर भी उसका चिन्तन मनन, मन्थन और दर्शन इतना हुआ है कि आत्मवाद भारतीय दर्शन का प्रधान अंग बन गया। जैन धर्म का प्रथम सत्य, आत्मा है और उसका प्रारम्भ बिन्दु आत्मा का साक्षात्कार हैं। इस कारण जैन दर्शन आत्मवादी कहलाता है। मैं हूँ, मैं शरीर से भिन्न हूँ, इस सत्य को स्वीकार कर तीन अन्य वादों को स्वीकार किया है। वे है - कर्मवाद, लोकवाद और क्रियावाद । आचारांग सूत्र के प्रारम्भ में चारों महत्त्वपूर्ण वादों का प्रतिपादन हुआ है जो परस्पर में आत्मवाद के पूरक है। आचार्य महाप्रज्ञ ने क्रियावाद की चर्चा करते हुए लिखा है कि क्रियावादी का निरूपण ग्रह रहा है कि आत्मा के अस्तित्व में सन्देह मत करो । आत्मा अमूर्त है, इसलिए इन्द्रिय-ग्राही नहीं है ।
आधुनिक चिंत
महाप्रज्ञजी ने आधुनिक चिन्तन प्रेषित करते हुए लिखा है कि आत्मा और परलोक की अन्वेषक परिषद के सदस्य सर ओलिवर लॉज ने आत्मअन्वेषण का मूल्यांकन करते हुए बताया है कि "हमें भौतिक ज्ञान के पीछे पड़ कर पारभौतिक विषयों को नहीं भूल जाना चाहिए। चेतन जड़ का कोई गुण नहीं परन्तु उसमें समाई हुई अपने को प्रदर्शित करने वाली एक स्वतन्त्र सत्ता है। प्राणीमात्र के अन्तर्गत एक ऐसी वस्तु अवश्य है जिसका शरीर के नाश के साथ अन्त नहीं हो जाता। भौतिक और पारभौतिक संज्ञाओं के पारस्परिक नियम क्या हैं, इस बात का पता लगाना अब अत्यन्त आवश्यक हो गया है ।"
वैज्ञानिक प्रयोग
इस सम्बन्ध में एक वैज्ञानिक प्रयोग का उद्धरण देते हुए कहा है कि वैज्ञानिकों ने आज ऐसे उपकरण बनाए हैं जिनके माध्यम से मृत्यु के समय स्थूल शरीर से निकलनी वाली आत्मा का फोटो लिया जा सकता है। उस समय आत्मा अकेली नहीं होती। जैन दृष्टि से संसारी आत्मा, सूक्ष्म शरीर के साथ होती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि वह आत्मा का फोटो है लेकिन आत्मा का सूक्ष्म फोटो नहीं लिया जा सकता। यह फोटो सूक्ष्म शरीर के हो