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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
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• शब्द
जैन दर्शन में शब्द को पुद्गल का प्रकार माना है। जैन दार्शनिकों ने शब्द को केवल पौद्गलिक कह कर ही विश्राम नहीं लिया किन्तु उसकी उत्पत्ति, शीघ्रगति, लोक व्यापित्व, स्थायित्व आदि विभिन्न पहलुओं पर पूरा प्रकाश डाला है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने आगम साहित्य में वर्णित सुघोष घन्टे की विशेषता का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब वह बजने लगता है तो उसकी ध्वनि की तरंगों का विस्तार होता है। ये ध्वनि की तरंगें असंख्य योजन दूर तक पहुँच जाती है और अपनी अनुनादी तरंगों से दूसरे घंटों को भी बजाना शुरू कर देती है। इसे आश्चर्यकारी माना जाता रहा है कि शब्द क्षण मात्र में लोकव्यापी कैसे बन जाता है ? लेकिन आज विज्ञान के द्वारा संभव हो सका है कि वैज्ञानिक साधनों से शब्द हजारों मील की दूरी पर पल भर में भेजा जा सकता है। शब्द की गति संबंधी अवधारणा जैन साहित्य में उस समय से है जब रेडियो, वायरलेस आदि का अनुसंधान नहीं हुआ था। उन्होनें ध्वनि को पुद्गल के कम्पन का परिणाम ही माना जैसा कि आज विज्ञान मान रहा है। विज्ञान ने तो स्पष्ट कर दिया है कि पदार्थ का कंपन वायु में तरंगे पैदा करता है और यही ध्वनि है जो आकाश में विस्तार लेती है। (iii) परमाणुवाद
- आचार्य महाप्रज्ञ ने परमाणुवाद पर टिप्पणी देते हुए लिखा है कि .परमाणुवाद के प्रवर्तक के रूप में भारतीय दार्शनिकों में कणाद और पाश्चात्य दार्शनिकों में डेमोक्रीटस का नाम उल्लिखित होता है। डेमोक्रीटस का अस्तित्वकाल ईसा पूर्व 460-370 माना जाता है। कणाद के वैशेषिक सूत्रों की रचना का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। भगवान महावीर का अस्तित्वकाल ईसा पूर्व 599-527 है। महावीर का परमाणुवाद अथवा पुद्गलवाद कणाद और डेमोक्रीटस से पूर्ववर्ती है, किंतु दर्शन-साहित्य के लेखकों ने इस सच्चाई की उपेक्षा की। इसका हेतु पक्षपातपूर्ण दृष्टि है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसका मूल हेतु जैन साहित्य की अनुपलब्धि अथवा उसका अध्ययन न होना ही है। परमाणु अविभाज्य है - इस सिद्धान्त में जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन एकमत हैं। परमाणु निरवयव है - इस विषय में उन दोनों में मतभेद है। जैन दर्शन में द्रव्य परमाणु को निरवयव और भाव परमाणु को सावयव माना गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार परमाणु निरवयव होता है।