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[जैन विद्या और विज्ञान . '
आकाश और दिशाएं
ताप दिशा
सामान्य व्यक्ति इस तथ्य से परिचित है कि जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित है, वह उस क्षेत्र के लिए पूर्व दिशा है और जिस ओर सूर्य अस्त होता है वह अपर-दिशा-पश्चिम दिशा है। पूर्व दिशा की ओर मुंह करके अगर व्यक्ति खड़ा होता है तो उसके दाहिने हाथ की ओर अर्थात् दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा और बाएं हाथ की ओर अर्थात् उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा . . है। ये चारों दिशाएं सूर्य के आधार पर ताप दिशा कहलाती हैं। आचारांग नियुक्ति में दिशा शब्द के सात निक्षेप बताएं हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक तथा भाव। प्राचीन मान्यता ___जैन प्राच्य साहित्य में दिशाओं और आकाश के सबंध में गहन चिन्तन : हुआ है। इसके प्रमुख दो कारण रहे हैं।
(i) कुछ दार्शनिक आकाश और दिशा को पृथक द्रव्य मानते हैं। (ii) न्याय और वैशेषिक दर्शन आकाश का गुण शब्द मानते हैं तथा
जो बाह्य जगत को देशस्थ करता है उसे दिशा मानते हैं। जैन दर्शन को ये दोनों तथ्य स्वीकार नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आकाश और दिशा के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -
आकाश स्वतंत्र द्रव्य है और दिशा उसका काल्पनिक विभाग है। आकाश अनन्त प्रदेशात्मक है, लोक-अलोकमय है, अनादि-अनन्त है और अभूर्त है। आकाश के जिस भाग से वस्तु व्यपदेश या निरूपण किया जाता है, वह दिशा कहलाती है। जैन आगमों में महादिशा, विदिशा, अनुदिशा, ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा, तिर्यक दिशा आदि नामों का प्रयोग हुआ है। दिशाओं की वक्राकार आकृति
- भगवती सूत्र में दिशाओं को मृदंगाकार कहा है, अर्थात् वे वक्राकार हैं। . वहां आकाश और दिशा में अंतर बताते हुए कहा है कि आकाश की श्रेणियां सरल रेखा में हैं लेकिन दिशाएं मृदंगाकार हैं अर्थात् वे वक्र हैं। वक्रता के सम्बन्ध में विज्ञान ने माना है कि आकाश काल जहां भी वक्राकार है वहां,