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________________ 94] [ जैन विद्या और विज्ञान अपूर्व घटना के समय वे टूट जाते हैं क्योंकि उस समय आकाश काल की वक्रता अनन्तं होती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि बिग-बैंग के पूर्व की सभी घटनाएं बिग-बैंग के समय नष्ट हो चुकी होती हैं। इस कारण यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है कि बिग-बैंग के पूर्व आकाश-काल की घटनाओं का क्या हुआ? निष्कर्ष की भाषा में सृष्टि के मॉडल में बिग-बैंग के पूर्व के किसी प्रश्न का, वर्तमान में महत्व नहीं है। जैन दृष्टि से प्रलय का अभिप्राय ___ यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों ने सृष्टि के प्रारम्भ होने की मान्यता को स्वीकार किया है लेकिन यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने सृष्टि को अनादि-अनन्त कहा है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि जैन दर्शन में सृष्टि का आरम्भ और प्रलय दोनों मान्य नहीं है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की सृष्टि और प्रलय से आंशिक रूप से तुलना की जा सकती है। अवसर्पिणी का छठा अर (भाग) प्रलयकार जैसा है। उत्सर्पिणी के दूसरे अर (भाग) से विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। यह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का क्रम : कालचक्र कहलाता है। अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात अवसर्पिणी होती रहती है। यह कालचक्रगत परिवर्तन केवल पांच भरत और पांच ऐरावत में होता है। इस दृष्टि से जैन दर्शन के अनुसार कालद्रव्य वर्तुलीय है। इसमें विकास हास की निश्चित परम्परा है लेकिन यह सृष्टि पूर्ण रूप से कभी नष्ट नहीं होती। ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में विज्ञान द्वारा हो रही शोध प्रगति पर है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः हम पाते हैं कि जैन दर्शन और विज्ञान ब्रह्माण्ड के अनादि-अनन्त होने की धारणा पर एकरूपता लिए हुए हैं।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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