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________________ नयां चिन्तन] [73 कंदतो कंदुकुंभीसु, उड्डपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतम्मि, पुक्कपुव्वो अणंतसो।। (उत्तरज्झयाणि 7/57) पकाने के पात्र में, जलती हुई अग्नि में पैरों को ऊंचा और सिर को नीचा कर आक्रन्दन करता हुआ मैं अनन्त बार पकाया गया हूँ। हुयासणे तत्र च बादराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति गम्यते । (बृहवृत्ति, पत्र 459) ____ अग्निकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं - सूक्ष्म और बादर। अग्नि के बादर जीव नरक में नहीं होते। यहां जो अग्नि का उल्लेख है, वह सजीव अग्नि के लिए नहीं किन्तु अग्नि जैसे तापवान् और प्रकाशवान् पुद्गलों के लिए हैं। महादवग्गिसंकासे, मरुम्मि वइरवालुए। कलंबवालुयाए य, दड्डपुत्वो अणंतसो।। (उत्तरज्झयणाणि 19/50 ) महा दवाग्नि तथा मरु-देश और वज्र – बालुका जैसी कदम्ब नदी के बालु मे मैं अनन्त बार जलाया गया हूँ। हुयासणे जलंतम्मि, चियासु महिसो वि व। . दड्डो पक्को व अवसो, पावकम्मेहि पाविओ।। (उत्तरज्झयणाणि 19/57) पाप कर्मों से घिरा और परवश हुआ मैं भैंसे की भांति अग्नि की जलती हुई चिताओं मे जलाया और पकाया गया हूँ। 'इंदभूती नाम अणगारे गोयमसगोत्ते........संखित्तविउलतेयलेसे......... | (भगवती 1/9) संक्षिप्ता-शरीरान्ती नत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुला-विस्तीर्णा अनेकायोजनप्रमाणक्षेत्रा - श्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलळि विशेषप्रभवता तेजोज्वाला यस्य स तथा। (भ. वृ. 1/9) वृत्तिकार ने तेजोलेश्या का अर्थ तेजो-ज्वाला किया है। यहां तेजोलेश्या का प्रयोग. एक ऋद्धि (लब्धि या योगज विभूति) के अर्थ में हुआ है। स्थानांग सूत्र के अनुसार यह ऋद्धि तीन कारणों से उपलब्ध होती है। इसकी तुलना हठयोग की कुण्डलिनी से की जा सकती है। कुण्डलिनी की दो अवस्थाएं होती हैं – सुप्त और जागृत। तेजोलेश्या की भी दो अवस्थाएं होती हैं – संक्षिप्त और विपुल । इसके द्वारा हजारों किलोमीटर में अवस्थित
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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