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________________ वोरस्तुतिरूप दुंडीनुं स्तवन अर्थ-वली श्रीनंदीसूत्र तथा अनुयोग क्षारसूत्रतथा श्रीउत्तराध्ययन सूत्रने विषे पण योग के योग कह्या. कालग्रहणनो के जोग मध्ये कालग्रह नो विधि करवो पडेले ते विधि सघलोय कह्यो. धरिए ते उपयोग के तेहनो उपयोग राखीए. एटले ते राखीने जोगनी अक्षा राखीए. इति तूर्य गाथार्थ ॥४॥ ___ हवे ते सूत्रना घालावा लखीएबैए. यथा नंदी सूत्रे. ॥ सेणं अंगघ्याए पढमे अंगे दो सुअखंधा पणवीसं अयणा पंचासीई नद्देसणकाला पंचासी समुदे सकाला ॥ इत्यादि पाठले. अस्यार्थ. अहींयां आचारांगादिक सर्व सिद्धांतना नदेशण काल दिन कह्याने ते माटे प्रथम याचारांगना कहेले. सेणं के ते, चं गज्याए के अंगार्थे जोशए तो प्रथम अंगडे. तेना दो सुअखंधा के,बे श्रुतस्कंधले. पणवीसं अयणा के बेतु श्रुतस्कंध थश्ने पंचवीश अध्ययनले. पंचासी उद्दे सकाला पंचासी समुद्देस के योगविधि गम्य नद्देश समुद्देश जाणवा. काला के० कालग्रहणविधि लाने. इत्यादिक सर्व सिमांतनां पाठले. केटला लख्यामां आवे? तथा श्रीअनुयोग वारने धुरे घणो पाठले. ते ग्रंथ वधे माटे लखता नथी. त था श्रीनत्तराध्यय ने अगीयारमे अध्ययने यथा ॥ वसे गुरुकुले निजं जोगवं वहा एवं पीयंकरे पीयंवाई से सिरकं समरिहर ॥ ॥ अर्थ-वसे गुरुकुले के गुरू कुले वसजे, एटले गुरूकुले वसीने गुरू आणानेविषे सावधान रहे जे. निचं के निरंतर, जोगवं के धर्म व्यापारवंत तथा, उवहाणवं के, अंगादिक अध्ययन नेविषे आंबिल प्रमुख तप विशेष कहीए ते उपधानवंत, पीयंकरे के प्राचार्या दिकने अनिमत थाहारादिक अनुकूलकारी पीयंवाई के आचार्यादिकना अनि प्राय प्रमाणे बोले, से के ते प्राणी, सिरकं के सूत्रार्थग्रहणरूप शिदा, ल मरिहर के पामवाने योग्य. एटले ए नाव जे, जे प्राणी उपधान करे; ते सूत्रा र्थ ग्रहेवा योग्य बे. इति गाथार्थः । ___ वली उत्तराध्ययनमध्ये बबीशमे अध्ययने कह्यांचे. जंनेइ जयारत्तिं नरकतं तमि नह चनप्नागे ॥ संपत्ते विरमिक्षा सशायं पउस कालम्मि ॥ १ ॥ अर्थ-जं ने के जे नत्र, रात्रिप्रत्ये पूरुं करे; ते नत्र, नह चनप्नागे संपत्ते के आका शने चोथे नागे आवे: एटले, विरमिशा के विरमे. सायं के समाय प्रत्ये, पस कालंमिके० प्रादोषिककालनेविषे एटले पहेले पहोरे राते प्रादोषिक काल ते वाघाइ काल लेवो लाने. ॥ तम्हेवय नस्कत्ते गयण चमनाग सावसेसंमि ॥ वेरित्तियं पि || कालं ॥ पडिले हत्ता मुणिकुशा॥ ॥अर्थः- तम्हेवय नरकत्तेके ० तेहज नद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002167
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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