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शोननकृतजिनस्तुति.
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मस्तकनेविषे, एटले मेघ ऊपर तडिदिवं के० विजली सरखी जाति के० शोनेले; सा के ते चक्रधरा देवी, मुदे के दर्षने माटे अस्तुके था. ते देवी केवी ने ? तो के-विचित्रवर्णविनतात्मजप्टष्ठमधिष्ठिता-विचित्र के नानाप्रकारनोडे वर्ण के. शरीरनो रंग जेनो, एवो जे विनतात्मज के० गरुड, तेना पृष्ठ के० पृष्ठनाग प्रत्ये अधिष्ठता के थारूढ थनारी, बने दुतात्समतनुनाक के० अग्नि सरखा दै दीप्यमान तनुं के ० देहने धारण करनारी, अने अविरतधीः के० विकाररहित बुद्धि जेनी, अने असमतनुना-असम के निरूपमले, तनुना के शरीरनी कांती जेनी एवी. ॥ ४ ॥ इति अरनाथ जिनस्तुतिः संपूर्णा ॥ १७ ॥ ७२ ॥ अवतरण- हवे मन्निनाथजिननी स्तुति रुचिरावृत्ते करीने कहेले.
नुदंस्तनुप्रवितरमल्लिनाथमे ॥ प्रियंगुरो चिररुचिरोचितांबरं ॥ विडंबयन्वररुचिमम
लोज्वलः॥प्रियंगुरोऽचिररुचिरोचितांबरं ॥१॥ व्याख्या-हेगुरो के गुरु एवा हे मस्निनाथ के० हे मन्निनाथनामे जिनेश्वर! प्रियंगुरोचिः के० प्रियंगु वृद सरखी जेनी कांति दे एवा अने वररुचिमंमलोज्व तः-वर के० श्रेष्ट एवं जे रुचिमंमल के कांतिमंमल तेणे करीने उज्वल के दै दीप्यमान एवो तुं. अरुचिरोचितां-नथी जे रुचिरके मनोहर, अने उचितके योग्य | एवा तनुं के० पोताना देहने नुदन के क्ष्य पमाडता थका अने अचिररुचिरोचि तांबरं-अचिररुचि के० विजली, तेरो रोचित के० प्रकाशित एवं जे अंबर के श्राकाश, तेने विडंबयन के अनुकरण करतो थको एटले विजलीए युक्त एवा मेघ सरलुं शरीर धारण करतो थको, मेके मने प्रियके प्रियकारक एका वरंके । वरने प्रवितर के समर्पण कर. ॥ १॥
जवाजतंजगदवतोवपुर्व्यथा ॥ कदंबकैरवशतपत्रसंपदं॥ जिनोत्तमान्स्तुतदधतःस्त्रजस्फुर कदंबकैरवशतपत्र संपदा॥ व्याख्या-हे नव्यजनो! तमे वपुर्यथाकदंबकैः-वपुके० शरीर, तेनी जे व्यथा के पीडा तेउनो जे कदंब के समुदाय, तेजए करीने अवशके परवश, अनेतपत्के ताप पामनारचे त्रस के० प्राणी जेनेविषे, एवं जे पदके स्थान, तेप्रत्ये गतके प्राप्त थएला एवा जगत्के० जगत्ने जवात के वेगेकरीने अवतः के रक्षण करनारा | एवा बने स्फुरत्कदंबकैरवशतपत्रसंपद-स्फुरत के प्रफुल्लित एवा जे कदंब
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