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सवासो गाथा- स्तवन. अवर कदे पूजादिक गमे ॥ पुण्यबंध के शुन परिणामे ॥ धर्म ३ हां नवि को दीसे ॥ जेम व्रत परिणाम मन हीसे ॥ १५ ॥ व्याख्या-वली अपरमति कोइक एम कहे जे के पूजादिकने तामे गुन परिणा मे पुण्यनो बंध ; पण इहां धर्म को दीसतो नथी. जेम व्रत परिणामे धर्म कहे तां चित्त हीसे ले, तेम पुष्पादिक बारंन नणी पूजा धर्म कहेतां चित्त दीसतुं नथी. निश्चयधर्म न तेणे जाण्यो॥ जे सैलेशी अंत वखाण्यो॥धर्म अधर्मतणो दयकारी ॥शिवसुख दे जे नवजल तारी॥१०॥ व्याख्या-एम कहे ते मतीए निश्चय धर्म जाग्यो नथी. निश्चय धर्म जे सैलेती अंत के चउदमा गुणगणाने हेमे वखाण्यो बे. ते धर्म केवो के ? अधर्मनो द यकारी अथवा बीजो अर्थ एम जे जे धर्म अधर्म ए बनेनो क्य करनारो ने, थ ने नवजल तारीने शिवसुख के० मोदसुख आपे एवो बे. उक्तंच धर्म संग्रह एयां-सोनिय ख हेक सेलेसी चरम समय नावित्ति-निश्चय धर्म जाग्यो होय तो तेहने विरहे पंचमे बछे गुणगणे सरखोज कहे पण पदपात न करे ॥१०६॥ तस साधन तुं जे जे देखे ॥ निज निज गुणगणाने लेखे ॥तेद धरम व्यवहारे जाणो ॥कारज कारण एक प्रमाणो॥१७॥
व्याख्या-ते शैलीसी चरमसमय नावी निश्चयधर्म तुं परंपराए साधन जेहनु | निज निज के० पोतपोताने गुणगाणे देखे ३ तेहने व्यवहारे जाण. तंउलाःपचंति वर्षति पर्जन्य इति वचनात्-कार्य कारण एक करी प्रमाण जे. वस्तु स्पर्शी उपचार पण प्रमाणले. तेहनो निषेध तो पूजामांहे न संनवे; तो केम कहे? जे पूजा मांहे पुण्य होय पण धर्म न होय. एम ए विचारी जोजे ॥ १७ ॥
एवंनततणो मत नाप्यो ॥ शुद्ध व्य नय एम वलि दाख्यो॥ निजस्वनावपरणति तेधर्म ॥ जे विनाव ते नावज कर्म ॥१०॥ व्याख्या-एवंनूतनयनी अपेदाए नाष्यो.गुरु व्यनये वली एम देखाड्यो.जेटलो निज स्वनावनो आविर्भाव ते धर्म; अने जेटलो विनावनो विलास तेनावकर्म जाणवो.
धर्म शुक्ष उपयोग स्वनावे ॥ पुण्य पाप शुन अशुन विनावे ॥ धर्म देतु व्यवहारज धर्म॥निज स्वनाव परणतिनो मर्म॥१०॥ व्याख्या-यहीयां शुरू इव्यनयते शुभाशुप्रति व्यवहाररूप लेवी. अथवा
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