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रत्नाकरपंचवीसी.
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___ व्याख्या-हे प्रनो, जेम बाललीला कलितः के बालकनी जे लीला के धू लने विषे खेल, इत्यादिक, तेणे कलित के युक्त अने निर्विकल्प के जेथी नाप ण अनाषणरूप नेद गयो, एवो जे बाल ते पित्रोःपुरःके मातपितानी पासे किं न जल्पति के गुं नथी बोलतो? अर्थात् न बोलवान पण ते सर्व बोलेले,तेम हे नाथ के० हे कल्याणकारक, सानुशयः के० बदु पातक संपादन कस्यां ए माटे पश्चात्तापे युक्त एवो हुँ, तवाग्रे के तारा अपनागनेविषे, निजाशयं के पोताना अभिप्रायने, यथार्थ कथयामिके यथार्थपणे कथन करूं. अर्थात हूं मारो अ निप्राय तारी पासे प्रगट करूंबु. ॥ ३ ॥
दत्तं न दानं परिशीलितं च न शालि शिलं न तपोऽनितप्तं ॥ शुनो न नावोप्यनवनवेऽस्मिन्विनो मया भ्रांत महो मुधैव ॥४॥ व्याख्या- हे विनो के. हे स्वामिन् ! मया दानं न दत्तं के० में कपणपणा ए करी सत्पात्रनेविष धननो विनियोग कस्यो नहीं, अने शातिशीनं के मनोज्ञ एवा ब्रह्मचर्यने न परिशीलितं के पालन का नहीं. तेमज तपः न अनितप्तंके० बाह्य अने अंतरंगरूप बारप्रकारनुं तप कयुं नहीं. तेमज शुनःनावोपिके कल्या णकारक एवो नाव पण नानवत् के मने प्राप्त थयो नहीं. ए माटे अहो इति खेदे!! में मुधैव के व्यर्थज अस्मिन्नवे के या संसारनेविषेत्रांत के चमण कघू. मोरादायथी कांज सत्कर्म बन्युं नहीं. एवो अर्थ. ॥ ४ ॥
दग्धोऽग्निना क्रोधमयेनदष्टो उष्टेन लोनाख्यमदोरगेण ॥
ग्रस्तोऽनिमानाजगरेण मायाजालेन बोऽस्मि कथं नजेलां ॥५॥ व्याख्या-हे नाथ, क्रोधमयेन अमिना दग्धः के क्रोधरूप अग्मिए अत्यंत ताप पमाडेलो अने उष्टेनलोनाख्यमहोरगेण दृष्टःके निर्दय एवा लोन नामे महा सर्प दंश करेलो, अने अनिमानाजगरेणग्रस्तके अहंकाररूपी अजगरे गले लो, अने मायाजालेन बक्षः अस्मि के कपटरूप जे जाल के ० मत्सबंधन जाल स रखं बंधनहेतु, तेणे बंध पामेलो ढुं, ए माटे त्वां कथं नजेके तारूं केम से वन करूं? तो हे प्रनो! तारी कृपाए क्रोध, लोन, अनिमान थने माया, ए-नो ना श थने तारूं सेवन करवानो मारो हेतु क्यारे पूर्ण थशे? एवो नावार्थः ॥ ५ ॥
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