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कागल.
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मैकल्पनातो ॥धर्मकल्पनालघीयसीति न्याये काल ते जीवाजीवा पर्यायज युक्त. ए अस्मत्रूत सिद्धांत तर्क परिष्कारन्यायालोकादि ग्रंथ प्रसि६ . जे दिगंबर मंदगति परमाणुने जे आकाश प्रदेश व्याप्ति क्रमण तदवबिन्न पर्याय समय तद नुरूप इव्य समयाणु लोकाकाश प्रदेश प्रमाण रत्नरासि समय कहेले. तेणे प्रदे श व्यतिक्रमणावचिन्न दिग्व्याणु पण केम न मानवां. तादृश आगम नथी तो आगम जश्ने आगम प्रमाण करवो; तो पहिला किम न करीए? ते बागम तो जीवाजीवात्मक कालप्रतिपादक देखाइयो ने. काल परत्वा परत्व निमित्त जिम काल तिम देशिक परवापरत्व निमित्त दिगव्य पण तांत्रिक प्रसिज ने. हवे कहेशो व्य शक्ति वैचित्र्यदिकार्य हेतुता थने अवगाहनाहेतुता थाकाश इव्यनेज कल्पिये बे. लाघवात् तथाचगंधहस्ती वात्रिंशकाययाकाशमवगाहाय तदनन्यादिगन्यथेति.
तो स्वस्व गुणकारी जीवाजीव इव्यनेज वर्तना हेतुता कल्पता कोण निवारे ? जिहां सहाय आगमबलि . बीजुं मंदगति थणु संक्रमानुसारे कालाणु कल्पि ए तो मंद परमावगाहनाद्यनुसारे श्राकाशादि अणुया पण कल्प्या जोइए. सा धारणावगाहनादि हेतुताए अाकाशादि स्कंध कल्पनोत्तर तदए कल्पना जो स्कं ध जह वृत्ति प्रदेश कल्पना पर्यवसन्न होए तो ए कालव्ये पण समान साधार ए वर्तनानुसारे एक काल स्कंध थावे. पड़ी तत् प्रदेश यावे. सिक्षांत विरोधी जो ए कल्पना करवी तो उक्त सिद्धांत युक्ति सिमांत मानो. जे मतांतरे मनुष्य क्षेत्र कालमान इव्य कझुंडे. ते ज्योतिषचक्र चार व्यापक वर्तना पर्याय समूहनेविषे इव्यनो उपचार करीने. उक्तंच नयचके पर्याय व्योपचार इति. एबे मत श्री हरि नसूरिकत धर्मसंग्रहणीमध्ये . तथाचतत्पातः जं वत्तणादिरूवो कालो देवस्त चेव पजावो: सोचेव ततो धम्मो, कालस्स वऊस्त जोलोए ति ॥१॥
अर्थः- जं के जे कारणमाटे वर्तनादिरूप कालज डे, ते इव्यनोज पर्याय ने. ततः के तेमाटे सोचेवके ते वर्तनारूप पर्यायज कालधर्म कहिये. अथ वा काल जे लोए के मनुष्य क्षेत्रमाहि ज्योतिश्वारा जिव्यंग्य ले. तेहनो धर्म ते काल, इहां कालव्य ते पर्यायनेज कह्यु. ए इव्यं अनपेक्षित बे. पृथिव्यादि स मूहरूप एक राजगृह नगरसमान ते परमार्थिक इव्य नथी पण कहेवारूप . अतएव कालश्चेतेके ए तत्वार्थ सूत्रे, ए मते कालव्य कह्यु. ते अनपेदित इव्या र्थिक बे प्रकारे वृत्तिकारे जोङयु के. अतएवअनादि उपचारे कालव्य लेश्ने सूत्रे षट षट इव्य कह्यां; तेमाटे सूक्ष्म पर्याय समयमा उत्पाद व्यय ते प्रथमादि नावे
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