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दशवकालिक को टीका में प्रायी हुई कथाएं उपदेशप्रद हैं। प्रत्येक कथा कोई न कोई उदाहरण अवश्य प्रस्तुत करती है । उदाहरण या दृष्टान्त इन कथाओं में लाक्षणिक
और प्रतीकात्मक शैली में ही निरूपित किये गये हैं। कुछ कथाओं में मनोविज्ञान के प्रारंभिक रूप भी उपलब्ध होते हैं। इन दृष्टान्त कथाओं में तात्कालिक सुख की इच्छाओं को त्यागकर शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने का संकेत किया गया है । यह प्रयत्न मनुष्य के मानसिक विकास को प्रदर्शित करता है । जो व्यक्ति इच्छाओं का त्याग नहीं कर सकता है, वह इच्छाओं का उदात्तीकरण करे। किसी भी अच्छे कार्य को करके फल के विषय में चिन्तित न होना अथवा संसार की भलाई के लिये भला काम करते रहना वासनाओं का उदात्तीकरण है । विचार और भावों की एकता होने से मनुष्य के प्राचरण में परिष्कार होता है । शक्ति और कार्यकुशलता की प्राप्ति भाव और विचारों के संतुलन से ही आती है । जीवन में उत्साह और रस का संचार भी उदाहरणों से संचरित किया जा सकता है । उचित-अनुचित, उपयोगी-अनुपयोगी एवं कर्तव्य-अकर्तव्य का वास्तविक बोध कराने के लिये दशवकालिक टीका को कथाएं पूर्ण सक्षम है।
उपदेशपद की गाथात्रों में लगभग ७० कथाएं गुम्फित है। इस ग्रन्थ के टीकाकार मुनिचन्द्र ने इन कथाओं को कहीं-कहीं विस्तृत किया है । यद्यपि कथाओं की प्राकृतिमूलक रेखाएं ज्यों को त्यों हैं, किन्तु इन प्राकृतियों में उन्होंने जहां-तहां रंग भरा है ।
इन कथाओं में कुछ पौराणिक आख्यान भी संकलित हैं, पर सोद्देश्यता रहने के कारण इन कथाओं का एकमात्र ध्येय है आभ्यंतरिक और बाह्य कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना । साधारणतः मानव बाह्य कठिनाइयों की ओर ही दृष्टिपात करता है । आन्तरिक विचारों की ओर दृष्टिपात करने का किसी विरले व्यक्ति को ही ध्यान रहता होगा। जो व्यक्ति आध्यात्मिक चिन्तन में थोड़ा बहुत समय भी लगाता है, वह प्रतिकूल परिस्थितियों पर भी विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। उसकी अपार मानसिक शक्ति का भण्डार खुल जाता है। उसके चरित्र के दुर्गुण संक्रामक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। और सद्गुणों का संचार हो जाता है ।।
उपदेशपद की कथाओं में मनुष्य भव की दुर्लभता आदि व्यक्त करने के लिये जो दस दृष्टान्त कथाएं अंकित की गई है, वे मनोरंजक तो है ही, साथ ही जीवनोत्थान के लिये अपूर्व प्रेरणा देने वाली हैं। बुद्धि की कुशलता और पाप-पुण्य की महत्ता प्रकट करने वाली कथाएं भी कम मनोरंजक नहीं है। इनमें लघुकथा के सभी तत्व पाये जाते हैं।
लीलावईकहा
धार्मिक कथा-साहित्य के क्षेत्र में समराइच्चकहा ने एक नया मार्ग प्राकृत कथासाहित्य को प्रदान किया है, तो प्रेमाख्यानक आख्यायिका के क्षेत्र में कौतूहल कवि की लीलावई कहा ने। ये दोनों कथा कृतियां अपने-अपने क्षेत्र में बेजोड़ और सरस हैं। दोनों का स्थापत्य एक होने पर भी दोनों की दिशाएं दो हैं। लीलावईकहा को कादम्बरी के तुल्य माना गया है। कादम्बरी संस्कृत गद्य में लिखी गयी है, पर लीलावईकहा प्राकत पद्य में। इस कृति में कथा के समस्त लक्षण विद्यमान हैं। सरस लोककथा या प्रेमकथा के रूप में इस कृति का प्राकृत कथा-साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है।
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