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________________ उपर्युक्त ग्रन्थों में संग्रह विवृत्ति और लघुक्षेत्र समासवृत्ति इन दोनों ग्रन्थों को हस्तलिखित प्रतियां भी उपलब्ध है। एल० बी० गांधी ने जैसलमेर भंडार को ग्रन्थ सूची में इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख किया है । गणधर सार्धशतक में सुमतिगणि ने उक्त बोनों ग्रन्थों का रचयिता आचार्य हरिभद्र सूरि को ही माना है । हरिभद्र की प्राकृत कथाएं हरिभद्र ने समराइच्चकहा और धूख्यिान के साथ टीका और चूणियों में उदाहरण के रूप में प्रगणित दृष्टान्त कथाएं लिखी हैं। यद्यपि इनका विस्तृत विवेचन आगे के प्रकरणों में किया जायगा, तो भी प्रति संक्षेप में यहां उल्लेख करना आवश्यक है । यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि हरिभद्र के पूर्व प्राकृत कथाओं की एक सुदृढ़ परम्परा थी। वसुदेव हिंडी और तरंगवती कथा का प्रभाव प्राचार्य हरिभद्र के ऊपर अत्यधिक पड़ा है । जन्म-जन्मान्तरों के घटना जाल की परम्परा तरंगवती से प्रारम्भ होती है। यों तो पौराणिक उपाख्यानों में पूर्वभवावली चली आ रही थी, किन्तु घटनातन्त्र की संघटना तरंगवती से ही प्रारम्भ हुई है। हरिभद्र ने स्थापत्य को परम्परा में एक नयी गठन भी उत्पन्न की है । तरंगवती में पूर्वजन्म की स्मृतियां और कर्मविपाक केवल कथा को प्रेरणा देते हैं, पर समराइच्चकहा में पूर्व जन्मों की परम्परा का स्पष्टीकरण, शभाशभ कृत कर्मों के फल और श्रोताओं या पाठकों के समक्ष कुछ नैतिक सिद्धांत भी उपस्थित किये हैं। समराइच्चकहा की आधारभूत प्रवृत्ति प्रतिशोध भावना है। प्रधान कथा में यह प्रतिशोध की भावना विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है । दर्शन की भाषा में निदान शब्द शल्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है । किसी अच्छे कार्य को कर उसके फल की आकांक्षा करना अर्थात् सकाम कर्म करना निदान है। वैद्यक शास्त्र के अनुसार अपथ्य सेवन से उत्पन्न धातुओं का विकार जिसके कारण रोग उत्पन्न होता है, निदान कहलाता है। इसी प्रकार अशुभ कर्म, जिनका प्राणियों के नैतिक संघटन पर प्रभाव पड़ता है, जो अनेक जन्मों तक वर्तमान रहकर व्यक्ति के जीवन को रुग्ण-नानागतियों में भ्रमण करने का पात्र बना देते हैं, निदान है । हरिभद्र ने छठवें भव में इस निदान का स्वयं विश्लेषण करते हुए लिखा है-- "नियाणं च दुविहं हवइ, इहलोइयं परलोइयं च। तत्थ इहलोइयं अपच्छासेवणजणियो वायाइधाउक्खोहो, परलोइयं पावकम्म।" अग्निशर्मा गुणसेन के प्रति अत्यन्त तीन घृणा के कारण निदान बांधता है । यह घृणा ज्यों की त्यों आगेवाले भवों में दिखलायी पड़ती है । जब भी वह गुणसेन के जीव-पुनर्जन्म के कारण अन्य पर्याय को प्राप्त हुए के सम्पर्क में पहुंचता है, प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो जाती है । अग्निशर्मा का निन्द्याचरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि विभिन्न प्रवृत्तियों के रूप में व्यक्त हो जाता है और पुनः पापाचरण करने से भावी कर्मों की निन्द्य परम्परा बनती चली जाती है । शुभाचरण का फल मनुष्य स्वर्गादि सुखों के रूप में और अशुभाचरण का फल नरक, नियंच आदि योनियों में दुःखों के रूप में प्राप्त करता है। उपर्यक्त तथ्य को केन्द्र मानकर समराइच्चकहा में नायक सदाचारी और प्रतिनायक दुराचारी के जीवन संघर्ष की कथा, जो नौ जन्मों तक चलती है, लिखी गई है । नायक शुभ परिणति को शुद्ध परणति के रूप में परिवत्तित कर शाश्वत सुख प्राप्त करता है १--विशेष सूचना के लिये देखें--अनेकान्त जयपताका, भाग २, भूमिका तथा योगशतक, परिशिष्ट ६, पृ० १४२----४४ । २--या० संपादित स० छ ० भ०, पृ० ४८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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