________________
३=
सुभद्रा सहित सुखपूर्वक निवास करता था । इसके गर्भ के समय उसे दोहद उत्पन्न हुआ -- "कमण य से दोहले जातो -- सव्वभूते सु अणुकप्पमाणेणं धम्मियजणेण वच्छल्लया atoryeपया बहुतरो य दाण पसंगो ।"" अतएव स्पष्ट है कि इसकी माता को धर्माचरण के विषय में दोहद उत्पन्न हुआ था, इसी कारण पुत्र का नाम धम्मिल रखा गया । धम्मिलहिण्डी का वातावरण सार्थवाहों के संसार से लिया गया है । इसे अपने आप में स्वतंत्र रचना माना जा सकता है, जिसके कथा मूल का केन्द्र नरवाहनदत्त या वसुदेव की तरह कई विवाहों की कथा पर ही आश्रित है । धम्मिलहिण्डी में कई कथाएं बहुत सुन्दर हैं । शीलमती, धनश्री, विमलसेना, ग्रामीण गाड़ीवान, वसुदत्ताख्यान, रिपुदमन, नरपति आदि आख्यान बहुत ही सुन्दर लोककथानक हैं, इनमें लोककथाओं के सभी गुण और तत्व विद्यमान हैं । अन्त में धम्मिल के सुनन्दभव और सरहभव के आख्यान भी सम्मिलित हैं । इसमें धनवन्त सार्थवाह के पुत्र धनवसु के विषय में उल्लेख है कि उसने जहाज लेकर यवन देश की व्यापारिक यात्रा की थी और अपने साथ बहुत सायंत्रिक व्यापारियों को ले गया था । इससे स्पष्ट हैं कि धम्मिलहिंडी में सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उल्लेख वर्तमान है ।
२
वसुदेवहिण्डी में धम्मिलहिण्डी के अतिरिक्त छः विभाग हैं--कथोत्पत्ति, पीठिका, मुख, प्रतिमुख, शरीर और उपसंहार । कथोत्पत्ति, पीठिका और मुख में कथा का प्रस्ताव हुआ है । प्रतिमुख में वसुदेव ने अपनी आत्मकथा प्रारम्भ की हैं । शरीर के अन्तर्गत कथा का विस्तार है, इसमें वसुदेव का भ्रमण और उनके सौ विवाहों का वर्णन है । उपसंहार कथा की समाप्ति की गयी है ।
वसुदेव की आत्मकथा का आरम्भ करते हुए बताया गया है कि सत्यभामा को पुत्र सुभान के लिये १०८ कन्याएं एकत्र की गयीं, किन्तु उनका विवाह रुक्मिणी के पुत्र साम्ब से कर दिया गया । इस पर प्रद्युम्न ने वसुदेव से कहा -- “ देखिये, साम्ब ने अन्तःपुर में बैठे-बैठे १०८ बधुएं पा लों, जबकि आप सौ वर्ष तक उनके लिए घूमते फिर ।" इसके उत्तर में वसुदेव कहा -- “ साम्ब तो कुएं का मेढक हैं, जो सरलता से प्राप्त भोग से संतुष्ट हो गया । मैने तो पर्यटन करते हुए अनेक सुख और दुःखों का अनुभव किया । मैं मानता हूं कि दूसरे किसी पुरुष के साथ में इस तरह का उतारचढ़ाव न आया होगा ।
"अज्जय ! तुब्भे (हि) वासस्यं परिभमंत हि अम्हं अज्जियाओ लद्धाओ । पस्सह संबस्स परिभोगे सुभाणुस्स पिंडियाओ कण्णाश्रो ताओ संबस्स उवट्टियाओ । वसुदेवेण भणिओ पज्जुणे -- संबो कूब दद्द रो इव सुहागयभोग संतुट्ठो । 'मया पुण परिब्भमंत'ण जाणि सुहाणि दुक्खाणि वा अणुभूयाणि ताणि अण्णेण पुरिसेोण दुक्कर होज्ज' ति चितेमि । " " इस कथा में निम्न विशेषताएं हैं:
---
(१) लोक कथा के समस्त तत्त्वों की सुन्दर विवेचना है । (२) मनोरंजन के पूरे तत्त्व विद्यमान हैं ।
(३) अद्भुत कन्याओं और उनके साहसी प्रेमियों, राजाओं और सार्थवाहों के षड्यंत्र, राजतंत्र, छल-कपट- हास्य और युद्धों, पिशाचों एवं पशु-पक्षियों की गढ़ी हुई कथाओं का ऐसा सुन्दर कथा - जाल हैं कि पाठक मनोरंजन, कुतूहल और ज्ञानवर्द्धन के साथ सम्यक् बोध भी प्राप्त कर सकता है ।
१--व० हिं० पृ० २० प्रथमखंड - - प्रथम अंश । २--व० हि० पृ० ६५ प्रथमखंड -- प्रथम अंश । ३ - वसु० पुडिमुहं पृ० ११० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org