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बना देता है । ईस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में ऐसे सुन्दर उपन्यास का लिखा जाना कम आश्चर्य की बात नहीं है । इसमें घटनाएं ऐसी वर्णित हैं, जिनमें पाठक अपना अस्तित्व भूलकर लेखक के अनुभव और भावनाओं में डूब जाता है ।
समस्त घटनाएं एक ही केन्द्र से सम्बद्ध हैं । एक भी ऐसा कथानक नहीं है, जिसका केन्द्र से संबंध न हो । देश, काल और वातावरण का चित्रण भी प्रभावान्विति में पूर्ण सहायक है । संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि इस धार्मिक उपन्यास की कथावस्तु पूर्णतया सुगठित हैं, शिथिलता तनिक भी नहीं ।
शील निरूपण की दृष्टि से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नायक-नायिका के शील का विकास एक निश्चित धारा में हुआ है । यद्यपि पात्रों के रागों और मनोवेगों का खुलकर निरूपण किया गया है, उनमें स्वच्छन्द गति और संकल्प शक्ति की कमी नहीं हैं, फिर भी पात्रों में वैयक्तिकता की न्यूनता है । नायिका के चरित्र-चित्रण में लेखक को पर्याप्त सफलता मिली है । लेखक ने कृति का नामकरण भी नायिका के नाम पर ही किया है । नायक का चरित्र उस प्रकार दबा हुआ है, जिस प्रकार पहाड़ी शिला के नीचे मधुर जलस्रोत । कृतिकार ने अवरोधक चट्टान को तोड़ने की चेष्टा नहीं की है । नायक के किसी भी गुण का विकास नहीं दिखलायी पड़ता है । में तनाव और संघर्ष की स्थिति भी वर्त्तमान है ।
कथानक
वसुदेवहिण्डी
वसुदेवहंडी का भारतीय कथासाहित्य में हो नहीं, बल्कि विश्व कथासाहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है । जिस प्रकार गुणाढ्य ने पैशाची भाषा में नरवाहनदत्त की कथा लिखी हैं, उसी प्रकार संघदास गणि ने प्राकृत भाषा में वसुदेव के भ्रमण वृत्तान्त को लिखकर वसुदेवहंडी की रचना की है । इस ग्रन्थ के दो खंड हैं-- - प्रथम और द्वितीय । प्रथम खंड में २९ लम्भक और ग्यारह हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ विस्तार है । द्वितीय खंड में ७१ लम्भक और सत्रह हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ विस्तार है ।
प्रथम खंड के रचयिता संघदास गणि और द्वितीय खंड के रचयिता धर्मदास गणि माने जाते हैं । आवश्यक चूर्ण में वसुदेवहिण्डी का तीन बार उल्लेख आया है । इससे सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की रचना ई० ६०० के पहले ही हो चुकी हैं ।
धर्मदास गणि ने अपना कथासूत्र २९ लम्भक से आगे नहीं चलाया है, किन्तु १८वें लम्भक की कथा प्रियंगुसुन्दरी के साथ अपने ७१ लम्भकों के संदर्भ को जोड़ा है और इस प्रकार संघदास न े वसुदेवहिण्डी के पेट में अपने ग्रन्थ को भरा है । अतएव धर्मदास गणि द्वारा विरचित अंश वसुदेव का मध्यम खंड कहलाता है । तथ्य यह है कि संघदास गणिका २९ लम्भकों वाला ग्रन्थ अलग अपने आप में परिपूर्ण था, पश्चात् धर्मदास गणि ने अपना ग्रन्थ अलग बनाया और बड़ी कुशलता से अपने पूर्ववर्त्ती ग्रन्थ को एक खूंटी पर टांग दिया ।
वसुदेवहिण्डी में कथोत्पत्ति प्रकरण के अनन्तर ५० पृष्ठों का एक महत्वपूर्ण प्रकरण उपलब्ध है । इस धम्मिलहिंडी प्रकरण में • सार्थवाह पुत्र की कथा है, जिसने देश-देशान्तरों में भ्रमण कर ३२ मूल ग्रन्थ में यह धम्मिल चरित कहा गया है । धम्मिल शब्द की व्युत्पत्ति में बताया गया है कि कुसर्गपुर में जितशत्रु राजा अपनी रानी धारिणी देवी सहित राज्य करता इस नगरी में इन्द्र के समान वैभवशाली सुरेन्द्रदत्त नाम का सार्थवाह अपनी पत्नी
था।
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धम्मिलहडी नाम का धम्मिल नामक किसी विवाह किये थे ।
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