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उपसंहार
प्राकृत कथा साहित्य की सबसे प्रमुख उपलब्धि यह है कि कथा लेखकों ने लोक प्रचलित कथाओं को लेकर उन्हें अपने धार्मिक सांचे में ढाला है और धर्म प्रचार के निमित्त एक नया रूप देकर श्रेष्ठ कथाओं का सृजन किया है । इन कथाओं का प्रधान उद्देश्य किसी सिद्धान्त विशेष की स्थापना करना है । कथारस का सृजन कर शुद्ध मनोरंजन करना इनका वास्तविक लक्ष्य नहीं हैं ।
साधारणतः प्राकृत कथाओं का स्वरूप पालि कथाओं के समान ही है । पर पालि कथाओं में पूर्वजन्म कथा का मुख्य भाग रहता है, जबकि प्राकृत कथाओं में यह केवल उपसंहार का कार्य करता है । पालि कथाओं में बोधिसत्व या भविष्य बुद्ध ही मुख्य पात्र रहते हैं, जो अपने उस जीवन में अभिनय करते हैं और आगे चलकर वह कथा उपदेश कथा बन जाती है । यद्यपि उस कथा का मुख्यांश गाथा भाग ही होता है, गद्यांश उस मुख्य भाग की पुष्टि के लिए आता है, तो भी कथा में समरसता बनी रहती है । यह सत्य है कि जातक कथाओं की एक-सी पिटी-पिटायी शैली है, किन्तु प्राकृत कथाओं में वं विध्य है अनेक प्रकार की शैली और अनेक प्रकार के विषय दृष्टिगोचर होते हैं । प्राकृत कथाएं भूत की नहीं, वर्तमान की होती हैं । प्राकृत कथाकार अपने सिद्धान्त की सीधे प्रतिष्ठा नहीं करते, बल्कि पात्रों के कथोपकथन और शील निरूपण आदि के द्वारा सिद्धान्त को अभिव्यंजना करते हैं । प्राकृत कथाकार अपने पात्रों को सीधे नैतिक नहीं दिखलाते । चरित्र के विकास के लिये ये किसी प्रेमकथा अथवा अन्य किसी लोककथा के द्वारा उनके जीवन की विकृतियों को उपस्थित करते हैं | लम्बे संघर्ष के पश्चात् पात्र किसी आचार्य या केवली को प्राप्त करता है और उनके सम्पर्क से उसके जीवन में नैतिकता आती है । इसी स्थल पर सिद्धान्त की स्थापना भी इतिवृत्त के सहारे होती जाती है । कथा मनोरंजक ढंग से आगे बढ़ती है ।
प्राकृत कथाओं की एक अन्य विशेषता यह है कि कथा में आये हुए प्रतीकों की उत्तरार्ध में सैद्धान्तिक व्याख्या कर दी जाती हैं । उदाहरणार्थ वसुदेवहिण्डी का 'भयुक्त कहाण' का उपसंहार अंश उद्धृत किया जाता है
अयमुपसंहारो - जहा सा गणिया, तहा धम्मसुई । जहा ते रायसुयाई, तहा सुर-मणयसुहभोगिणो पाणिणो । जहा आभरणाणि, तहा देसविरतिसहियाणि तवोवहाणाणि । जहा सो इब्भपुत्तो, तहा मोक्खकंखी पुरिसो । जहा परिच्छाकोसल्लं, तहा सम्मन्नाणं । जहा रयणपायपीढं, तहा सम्मणं । जहां रयणाणि, तहा महव्वयाणि । जहा रयणबिणिओगो, तहा निव्वाणसुलाभो त्ति ' ।
प्राकृत कथाओं के स्थापत्य से मुग्ध होकर मनीषियों ने उसकी मुतकण्ठ से प्रशंसा की है । विण्टरनित्स ने उसके महत्त्व को स्वीकार करते हुए बताया है
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"जैनों का कथा साहित्य सचमुच में विशाल हैं । इसका महत्त्व केवल तुलनात्मक परिकथा साहित्य के विद्यार्थी के लिये ही नहीं हैं, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जनसाधारण के वास्तविक जीवन की झांकियां मिलती हैं । जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में अनेक साम्य हैं, उसी प्रकार उनका
१ - - वसुदेवहिण्डी, पृ० ४ ।
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