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dra'ड्ड, वाह्यक्रीडा, अन्नविधि, पानविधि, शयनविधि और तरुणप्रीतिकर्म हरिभद्र की इस प्रकार की कलाएं हैं, जिनका अन्तर्भाव बहत्तर कलाओं की संख्याओं में संभव नहीं है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में जिन चौसठ कलाओं की नामावली दी गयी है, उनमें लेख, अंक, विज्ञान, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, स्वर्णसिद्धि, मृग गज लक्षण, स्त्री-पुरुष लक्षण आदि कलाएं समान हैं । अतः संक्ष ेप में इतना ही कहा जा सकता है कि हरिभद्र ने ७२ या ६४ कलाओं का विस्तार किया है । इन्होंने एक ही कला के कई अंग कर दिये हैं और ज्ञान के सभी अंगों को समेटने के लिये कुछ नयी कलाओं का भी उल्लेख किया है । इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र ने अपनी कलाओं में ज्ञान के सभी अंगों और भेदों को अन्तर्भुक्त कर लिया है ।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में निर्दिष्ट कलाएं कामशास्त्र की कलाओं के समान स्त्रियों के लिए विहित हैं । बहत्तर कलाएं पुरुषों के लिये बतलायी गयी हैं । समराइच्चकहा में निर्दिष्ट कलाएं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से ग्राहय हैं और यही कारण है कि हरिभद्र ने चौसठ और बहत्तर के संयोग से कलाओं की संख्या ८९ कर दी है । इस संख्या में उक्त दोनों ही कलाएं गर्भित हो जाती हैं ।
साहित्य के क्षेत्र में हरिभद्र के काव्य, नाटक, कथा, समस्यापूति, प्रहेलिका आदि का उल्लेख किया है । समराइच्चकहा के आरम्भ में धर्मकथा, कामकथा, अर्थकथा और संकीर्णकथा ये चार कथा के भेद किये हैं तथा इन कथाओं के स्वरूप का भी विश्लेषण किया है । हरिभद्र का सिद्धान्त हैं कि स्वानुभूति के संयोग से ही शब्द और अर्थ का संयोग साहित्य कहलाने का अधिकारी है । मनोभावों की हिलोर से जब अन्तर्जगत का सत्य बहिर्जगत् को सत्य के सम्पर्क में आकर एक संवेदना या सहानुभूति उत्पन्न करता
तब साहित्य की सृष्टि होती है । साहित्य का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक
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शिक्षा के संबंध में हरिभद्र के विचार बहुत उदार हैं । जीवन शोधन और लौकिक कार्यों में जिस ज्ञान के द्वारा सफलता प्राप्त होती हैं, उसकी गणना शिक्षा में की है ।
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