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सहस्र पाक ' नाम के एक तेल का निर्देश प्राया है, जो सभी चर्म रोगों को दूर करने वाला था। यक्षकर्दम' नाम का एक लेप आया है, जो शरीर को सुगन्धित करने के लिए तथा शरीर को मृदुल बनाने के लिए काम में लाया जाता था। यह लेप कर्पर, अगरू, कस्तरी और कंकोल के संयोग से तैयार होता था। गोखरू भी औषधि के रूप में व्यवहृत होता था।
गरुड़विद्या का उल्लेख भी हरिभद्र ने किया है। सर्प के दंश करने पर गरुड़ विद्या के जानकार एकत्र होते थे और सर्प का विष दूर कर देते थे।
वस्त्राभूषण हरिभद्र ने धनी गरीब दोनों के वस्त्राभूषणों का उल्लेख किया है । धनिक लोग मूल्यवान वस्त्र धारण करते थे और गरीब मलिन तथा जीर्ण वस्त्र पहनते थे । वस्त्रों के पहनने, प्रोढ़ने, बिछाने के वस्त्रों का भी निर्देश किया गया है । पहनने के वस्त्रों में अंशुक पट्ट, चीनांशुक, दुगुल्ल, देवदूप्य और उत्तरीय के नाम पाये हैं।
अंशुक :--साधारणतः महीन वस्त्र को अंशुक कहा जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में कीटज वस्त्र के पांच प्रकार बतलाये हैं --पट, मलय, अंशुक, चीनांशुक और कृमिराग। अंशुक महीन रेशमी वस्त्र है। इसका उल्लेख हर्षचरित में पाया है। (सूक्ष्मविमलेन अंशुक नाच्छादितशरीर देवी सरस्वती ६) का अंशुक प्राचीन काल का प्रसिद्ध वस्त्र है।
पट्टांशुक --यह पाट संज्ञक रेशम है। प्राचारांग सूत्र की व्याख्या में बताया है कि पट्टसूत्र (निष्पन्नानि) अर्थात् पाट सूत्र से बने वस्त्र ।
चीनांशुक --बृहत्कल्पसूत्र भाष्य में (४,३६६१) में इसकी व्याख्या "कोशिकाराख्यः कृमिः तस्माज्जातं अथवा चीनानामजनपदः तत्र यः श्लक्षणतरपटः तस्माज्जातं" अर्थात् कोशकार नामक कीड़े के रेशम से बना वस्त्र अथवा चीन जनपद के बहुत चिकन रेशम से बना कपड़ा है। निशीथ (पृ०४६७) में इसकी व्याख्या "सुहुमतरं चीणंसुयं चीनाविसए वा जातं चीणं सुयम्" अर्थात् बहुत पतले रेशमी कपड़े अथवा चीन के बने रेशमी वस्त्र को चीनांशुक कहते हैं। स्पष्ट है कि चीनांशुक बहुत पतला रेशमी वस्त्र था। इसका प्रयोग कवि कालिदास ने भी "अभिज्ञान शाकुन्तल" में (चीनांशुकमिबकेतोः प्रतिवातं नीयमानस्य) भी किया है।
दुगुल्ल --दुकूल बंगाल में उत्पन्न एक विशेष तरह के कपास से बना वस्त्र है। प्राचारांग सूत्र की टीका में "गौड विषय विशिष्ट कासिक" लिखा है। निशीथ सूत्रमें दुकल की व्याख्या करते हुए लिखा है कि--"दुगुल्लो रुक्खो तस्स त्त्वागो घेत्तुं उदूखले कुट्ट इज्जति पाणियण ताव जाव झूमी झूतो ताहे कच्चति दुगुल्लो" अर्थात् दुकूल वृक्ष की छाल लेकर पानी के साथ तब तक ओखली में कूटते हैं, जब तक उसके रेशे अलग नहीं हो
१--स०, पृ० ६०७। २--वही, पृ० ९५७ । ३--वही, पृ० १३२ । ४--वही, १० ७४। ५--श्री जग० कृत लाइफ इन एन्सियन्ट इण्डिया, पृ० १२८ । ६--वही, पृ० ७४ । ७---स०, पृ० ४३८ । ८--वही, पृ० १००।
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