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________________ सामने आया है । इस कथा में अनेक कथानक रूढ़ियों का भी प्रयोग हुआ है । पुनर्जन्मों तथा श्रतिप्राकृत तत्त्वों ( Supernatural elements) की योजना, दिव्य शक्ति के चमत्कार एवं अतिशयोक्तियां आदि की भरमार है मेघकुमार मुनि का उच्चादर्श पाठक को तद्रूप होने के लिए प्रेरणा देता है । दूसरे अध्ययन में धन्ना और विजय चोर की कथा अंकित है । कथा में सेठ और चोर को वन्दीगृह में एक ही स्थान पर मिलाने से ध्वनित होता है कि श्रात्मा और शरीर एक ही बेड़ी में आबद्ध हैं । श्रात्मा सेठ और शरीर चोर के स्थान पर है । शरीर रूपी चोर को भोजन दिये बिना आत्मशोधन में कारण तपश्चरण संभव नहीं है । विवेकी व्यक्ति साधना की सिद्धि के लिए शरीर को भोजन देते हैं, पोषण मात्र के लिए नहीं । ( इस कथा की एक अन्य विशेषता पात्रों के नामकरण की है । इन नामों से पात्रों की वृत्ति और प्रवृत्तियों का भी संकेत मिल जाता है, ) यथा धन्ना सेठ प्राज धन्ना सेठ परमैश्वर्यशाली के लिए मुहावरा ही बन गया है । भद्रा सेठ की पत्नी का नाम है, जो यथानाम तथा गुण है । विजय चोर नाम भी बहुत विलक्षण है । लगता है कि उस युग में बहुत से कुलीन व्यक्ति भी साहसिक हो चोरी का कृत्य करने लगते थे । धन्ना के पुत्र का विजय चोर अपहरण करता है और गहनों के लोभ से उसे मार डालता है । तलाश करने पर विजय चोर पकड़ा जाता है । यहां चोर का प्रासानी से पकड़ा जाना कथातत्व की दृष्टि से उचित नहीं है । इससे कुतूहल तत्त्व नष्ट हो गया है जो कथा का प्राण हैं । इस कथा का विकास शर्तपद्धति पर हुआ है । यह लोक कथाओं की एक बहुत प्रचलित कथानक रूढ़ि है । शर्त के बल से किसी पात्र को विवश होकर कोई प्रकरणीय कर्म करना पड़ता है और पाठकों को यह जानने का कौतूहल होता है कि देखा जाय अब इसका परिणाम क्या होने वाला है । पुत्रघातक को भोजन देने में जिस द्वन्द्व की सृष्टि हुई है, वह कौतूहलवर्धक है । कथातत्त्व की दृष्टि से इस कथा का श्राधुनिक कथा-साहित्य में भी महत्वपूर्ण स्थान है तीसरे अध्ययन में सागरदत्त और जिनदत्त की कथा है । इस कथा का मूलोद्देश्य मयूर के अंडों के उदाहरण द्वारा सम्यक्त्व के निश्शंकित गुण की अभिव्यंजना करना है । इस उद्देश्य में यह कथा सफल है । इस कथा में कुतूहल की मात्रा यथेष्ट नहीं है । जिनदत्त और सागरदत्त वेश्या को साथ लेकर वनक्रीड़ा के लिए जाते हैं, वेश्या वापस लौट आती है । यहां कथानक के प्रति जिज्ञासा अधूरी ही रह जाती है । पाठक अन्त तक सोचता रहता हो कि उस वेश्या का क्या हुआ, जो उन पनिक युवकों के जीवन में कुछ क्षणों के लिए आयी थी । कथानक के विकास में इस घटना का कोई महत्वपूर्ण योग नहीं I ऐसा लगता है कि उक्त लोककथा के चौखटे में धर्मतत्त्व को फिट किया गया । यही कारण है कि लोककथा को अधूरी छोड़ उद्देश्य की अभिव्यंजना की गयी चतुर्थ अध्ययन में जन्तुकथा अंकित है । यह दो कच्छप और शृगालों की कथा है । इस कथा में बताया गया है कि जो व्यक्ति संयमी और इन्द्रियजयो है, वह अंग सिकोड़ने वाले कछ ुए के समान आनन्द और जो इन्द्रियाधीन तथा असंयमी है, वह उछल-कूद करने वाले कछ ुए के समान कष्ट से जीवनयापन करता है और विनाश का कारण बनता है । ( पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर किसी खास नीति या तत्त्व पर प्रकाश डालना ही इस कथा का उद्देश्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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