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सूत्र कृतांग के छटवें और सातवें अध्ययन में प्रार्द्रककुमार के गोशालक और वेदान्ती तथा पेढालपुत्र उदक के साथ सम्पन्न हुए गौतम स्वामी के संवादों का उल्लेख है। इसके द्वितीय खण्ड के प्रथम अध्ययन में पाया हा पुण्डरीक का दष्टान्त तो कथासाहित्य के विकास का अद्वितीय नमूना है । एक सरोवर जल और कीचड़ से भरा हुआ है। उसमें अनेक श्वेत कमल विकसित है। सबके बीच में खिला हुप्रा विशाल श्वेत कमल बहुत ही मनोहर दीख रहा है । पूर्व दिशा से एक पुरुष प्राता है और इस श्वेत कमल पर मोहित हो उसे लेने लगता है, परन्तु कमल तक न पहुंच कर बीच में ही फंस कर रह जाता है। अन्य तीन दिशाओं से आये हए पुरुषों की भी यही दुर्गति होती है । अन्त में एक वीतरागी और संसार तरण की कला का विशेषज्ञ भिक्षु वहां प्राता है । वह कमल और इन फंसे हुए व्यक्तियों को देखकर सम्पूर्ण रहस्य को हृदयंगम कर लेता है। अतः वह सरोवर के किनारे पर खड़ा होकर ही "हे श्वेत कमल उड़कर यहां प्रा" कहकर उसे अपने पास बुला लेता है और इस तरह कमल उसके पास आ गिरता है । यहां पूण्डरीक दण्टान्त के प्रतीकों का विश्लेषण भी किया गया है । इस दृष्टान्त में वर्णित सरोवर संसार है, पानी कर्म है, कीचड़ काम भोग है, विराट् श्वेत कमल राजा है और अन्य कमल जन-समुदाय है। चार पुरुष विभिन्न मतवादी हैं और भिक्षु सद्धर्म है । सरोवर का किनारा संघ है, भिक्षु का कमल को बुलाना धर्मोपदेश है और कमल का आ जाना निर्वाण लाभ है । इस प्रकार सूत्रकृतांग में(प्रतीकों का प्राधार लेकर कुछ उपमाओं का विश्लेषण किया गया है ।
स्थानांग में क्रमशः एक से लेकर दस तक के भेदानुसार वस्तुओं के स्वरूप वणित है। इनमें कतिपय उपमान-उपमेयों द्वारा वृत्तान्तात्मक तथ्य भी निरूपित हैं। समवायांग में भी मात्र कथा बीज ही उपलब्ध होते है।
व्याख्याता प्रज्ञप्ति या भगवती सूत्र में पार्श्वनाथ और महावीर की जीवन घटनाओं का अंकन है। अन्य तीथ करों के दो-चार निर्देश भी उपलब्ध हैं। इसमें उदाहरणों, (दृष्टान्तों, उपमाओं और रूपकों में कथासाहित्य के अनेक सिद्धान्त निहित हैं। सूत्र
२११ में आयी हुई कात्यायन गोत्री स्कन्द की कथा सुन्दर है । इसकी घटनाओं में रसमत्ता है और ये घटनाएं कथातत्त्व का सृजन करने में पूर्ण सक्षम है।
नायाधम्मकहानो के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्यायों में नीति कथाएं और दूसरे श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में धर्म कथाएं अंकित हैं। ये सभी कथाएं एक में एक गुथी हुई है। (यद्यपि सभी कथाओं का स्वतन्त्र अस्तित्व है, पर लक्ष्य एक है--धर्मविशेष की प्रतिष्ठा और प्रसार ।) __ प्रथम अध्ययन में मेघकुमार की कथा है । मेघकुमार का जीवन वैभव जन्य अहंभाव का त्यागकर सहिष्णु बन पात्मसाधना में संलग्न रहने का संकेत करता है । यही इसका अन्तिम लक्ष्य और उद्देश्य है। इस उद्देश्य में यह कथा पूर्ण सफल है। अवान्तररूप से इस कथा में आदर्श राज्य की कल्पना की गयी है ।) राजगृह नगरी के सुशासन का वर्णन और महाराज श्रेणिक के प्रादर्श राज्य की कल्पना श्रोता के मन में/प्रादर्श राज्य और सुशासन के प्रति ललक उत्पन्न करने में सक्षम है। इस कथा का विकास लोक-कथा की शैली पर हुआ है-लोक-कथा में कोई जटिल अनहोनी-सी बातसमस्या रख दी जाती है और एक पात्र के द्वारा उसकी पूत्ति के संकल्प की घोषणा की जाती है, तत्पश्चात् उसके प्रयत्नों को सामने लाया जाता है। इससे कौतूहल की सष्टि होती है ।) महारानी धारिणी देवी को असमय में ही वर्षाकालीन दृश्य देखने
इच्छा प्रकट करने में एक ऐसी ही समस्या का बीजारोपण हा है। इस कथा के पात्र ही प्रादर्श नहीं है, अपितु इसमें प्रादर्श दृश्यों का भी उल्लेख हुआ है ।( शील की दृष्टि से सभी पात्र वर्गशील (Flat character) के है)। कथा का बन्धा-बन्धाया रूप
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