________________
३६८
योग्यताओं की आवश्यकता बतायी गयी है, उनमें युद्ध और शासन में पटु होना अत्यन्त प्रमुख है । साम, दाम, भेद और दंड इन चार नीतियों का राजा प्रयोग करता था । किलेबन्दी कर अपने राज्य को अजेय बनाता था ।
मनोरंजन के लिए राजा चौपड़ खेलता था। कभी-कभी अन्तःपुर में द्यूत भी खेला जाता था । तपस्वियों के प्रति राजा की अत्यन्त आदरबुद्धि रहती थी। इनसे राजा घबड़ाता था । तपस्वियों को अपने यहां बुलाना और उनके दर्शन करने जाना तथा आदरपूर्वक उनका प्रवचन सुनना राजा अपना कर्त्तव्य समझता था । राजधानी से बाहर भ्रमण के लिए भी राजा जाता था । कोई-कोई राजा शिकार भी खेलता था । प्रजा के साथ उत्सवों में भी राजा भाग लेता था 1
न्याय और व्यवस्था के निमित्त कभी-कभी राजा अपने प्रियजनों को भी देश- निर्वासन का दंड देता था । प्रजा की शिकायत को राजा बड़े ध्यान से सुनता था । प्रजा यदि उसके पुत्र या बन्धु की शिकायत भी करती थी, तो राजा उसे भी यथोचित दंड देता था। दूसरे के विचारों को जानना, सुनना और ध्यान देना राजा अपना कर्त्तव्य समझता था। यह बलवान्, उन्नतचेता और संयमी होता था । तत्वाभिनिवेशी होकर राज्य व्यवस्था
करता था ।
सामाजिक जीवन
हरिभद्र ने सामाजिक रचना के ताने-बाने को विभिन्न तत्रों से घुला-मिला प्रदर्शित किया हैं । इनके द्वारा गृहीत भरत, ऐरावत और विरह क्षेत्र में विभिन्न जातियों के लोग निवास करते हैं तथा इनका सामाजिक जीवन भी अनेक उपादानों से संगठित है ।
वर्ण और जातियां
परम्परागत चारों वर्णों का उल्लेख प्रायः सभी भारतीय कथाग्रंथों में पाया जाता हैं । हरिभद्र ने ब्राहमण, क्षत्रिय, वणिक्-वं श्य और शूद्र इन चारों वर्णों का कथन किया हैं, तथा चारों वर्णों से अपने पात्रों को चुना है। हरिभद्र ने मूलतः मानवजाति के दो भेद किये हैं--आर्य और अनार्य । उच्च आचार-विचार वाले गुणी पुरुषों को आर्य कहा है । जो आचार-विचार से भ्रष्ट हों तथा जिन्हें धर्म-कर्म का कुछ विवेक न हो उन्हें अनार्य या म्लेच्छ कहा गया है। हरिभद्र ने यक्ष, नाग, विद्याधर और गन्धर्व जातियों का भी निर्देश किया है । विन्ध्यमेखला में आग्नेय वंश की शवर - पुलिन्द आदि जातियों के निवास का उल्लेख विद्यमान हैं
अनार्य जातियों में शक, यवन, शवर, बर्बरकाय, मुहण्डोड्र और गौड़ जातियों के नाम गिनाये गये हैं । आर्य जाति के अन्तर्गत अभिजात्य वर्ग के लोगों के अतिरिक्त
१
१ - स० पृ०, ९५७ ।
२ -- यों तो समराइच्चकहा के सभी भवों की कथा में इस प्रकार का वर्णन आता हैं, पर विशेषतः समराइच्चकहा का प्रथम भव - राजा गुणसेन का तापसी आश्रम में
जाना ।
३ - वही, पृ० १७४ ।
४- प्रायः
सभी मदनोत्सवों में राजा प्रजा के साथ वनविहार के लिए गया है, वह पृ० ६४७, ३६८ ।
५ -- वही, पृ० ६ - - वही, पृ०
३६७ । ३४८ । '
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org