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चीन और भारत का सम्बन्ध ६९ ई० में श्रारम्भ हुआ था । इस समय राजा मिंग ने पश्चिम की ओर भारत से बौद्धभिक्षु बुलाने के लिए दूत भेजे थे । धर्मरक्षित और कश्यपमातंग भारत से अनेक ग्रन्थों के साथ आये और चीन में प्रथम बिहार बना' । समराइच्चकहा में जिसे चीन द्वीप कहा है, वास्तव में वह महाचीन है । हरिभद्र ने चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध का सुन्दर विवेचन किया है ।
प्रसिद्ध है ।
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महाकटाह -- यह द्वीप पश्चिमी मलाया में केदा के नाम से भारत के समुद्रतट से महाकटाह को जहाज जाते थे ।
स्वर्णभूमि - - इसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में बहुलता से हुआ हूँ । डॉ० मोतीचन्द्र ने लिखा है -- "महानिद्देश के सुवर्णकूट श्रौर सुवर्णभूमि को एक साथ लेना चाहिए । सुवर्णभूमि बंगाल की खाड़ी के पूर्व के सब प्रदेशों के लिए एक साधारण नाम था, पर सुवर्णकूट एक भौगोलिक नाम है | अर्थशात्र ( २ / २ / २८ ) के अनुसार सुवर्ण कुड्या से तं लर्पाणिक नाम का सफेद या लालचन्दन आता था । यहां का अगर पील और लाल रंग का होता था । सबसे अच्छा चंदन में कासार और निमोर से और सबसे अच्छा अगर चम्पा और अनाम से आता था । सुवर्ण कुड्या से दुकूल और पत्रोर्ण भी श्राते थे । सुवर्ण कुडया की पहचान चीनी कितसिन् से की जाती है, जो फूनान के पश्चिम में था । सुवर्णभूमि सागरपार पूर्वी प्रदेश के लिए प्रयुक्त हँ । जातक कथाओं में भी सुवर्णभूमि का उल्लेख है । एक जातक कथा में भकच्छ से सुवर्ण भूमि की यात्रा का निर्देश मिलता है । सुप्पारक जातक में ऐसी ही यात्रा विस्तार से दी है । उत्तराध्ययन को नियुक्ति --- "उज्जेणि कालखमणा सागरवमणः सुवण्णभूमीए में सुवर्णभूमि में कालकाचार्य क जाने का उल्लेख है । डॉ० मजुमदार ने वर्मा, मलयद्वीपकल्प, सुमात्रा और मलयद्वीप समूह के भूभाग को स्वर्ण भूमि माना है ' ।
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जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रों में से "समराइच्चकहा " में केवल भरत, ऐरावत, विदेह और विदेह का एक भाग अपरविदेह हो उल्लिखित है । भरत क्षेत्र का विस्तार जैनसाहित्य के अनुसार आधुनिक भारतवर्ष से बहुत ज्यादा है। जैन भूगोल के अनुसार विजयार्द्ध पर्वत मध्य में आने से तथा गंगादक्षिण के मध्य
५२६-- योजन है । १६
इसका विस्तार सिन्धु नदी के बहने से छः खण्ड हो गये हैं । में प्रखण्ड है, शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं ।
४ -- पत्ता अम्हे - दुमासमे तेण सं० स० पृ० ३६८ ।
५ -- सार्थवाह, पृ० १३४ ।
१ --~ वागची, इण्डिया एण्ड चाइना पू० ६-७ बम्बई १६५० । २ -- ववहरणनिमित्तं महाकडाहं गो । भग० सं० स० पृ० ७१३ । ३ -- डा० मोतीचन्द्र - सार्थवाह पृ० १६६, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् १९५३ ॥
काले
सुवण्णभूमि,
यह धनुषाकार है ।
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६-- जातक भाग ६ ( इंगलिश पृ० २२) |
७- - उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १२० ।
८- डा० रमेशचन्द्र मजुमदार, सुवर्णद्वीप, भाग १. पृ० ४८ ।
वैजन्ती
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इण्णा पवहणाओ भग०
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