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अतः हरिभद्र को केन्द्र मानकर प्राकृत कथासाहित्य को निम्न युगों में विभक्त कर उसके विकास का श्राकलन करना समीचीन होगा :--
( १ ) श्रागमकालीन प्राकृत कथासाहित्य ।
(२) टीकायुगीन प्राकृत कथासाहित्य |
(३) हरिभद्र पूर्वयुगीन स्वतन्त्र प्राकृत कथासाहित्य |
( ४ ) हरिभद्र कालीन प्राकृत कथासाहित्य |
(५) हरिभद्र उत्तरयुगीन प्राकृत कथासाहित्य |
प्रत्येक युग के कथा-साहित्य में शिल्प एवं प्रवृत्तियों की दृष्टि से स्पष्ट अन्तर दृष्टिगोचर होगा। कलाकारों ने कहां अपनी लेखनी को कितना सन्तुलित रखा है, किस स्थान पर आकृतियों का उभाड़ कितना और कैसा है, यह कुशल श्रालोचक की आंखों से छिपा नहीं रह सकता । जिस प्रकार चित्रकला के क्षेत्र में राजपूत कलम और मुगल कलम का अन्तर स्पष्ट दिखलायी पड़ता है, उसी प्रकार प्राकृत कथासाहित्य के उपर्युक्त युगीन कथा स्थापत्य में अन्तर रेखा सुस्पष्ट दिखलायी पड़ती है । यद्यपि प्राद्यन्त एक ही चेतना उपलब्ध होगी तथा धार्मिक सूत्र एक-सा ही अनुस्यूत मिलेगा एवं उपमा और दृष्टान्तों की एक सी ही परम्परा प्रतीत होगी, तो भी छेनी के कम या अधिक लगने से कृतियों की गठन रेखाएं स्पष्ट झलकेंगी। सुगढ़ता के तारतम्य का प्रत्यक्षीकरण हुए बिना न रहेगा । हम प्रत्येक युगीन प्राकृत कथा - साहित्य के सामान्य शिल्प का निरूपण करते हुए उस युग की प्रमुख प्राकृत कथाकृतियों का परिचय उपस्थित करेंगे ।
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