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प्रथम प्रकरण
प्राकृत कथासाहित्य का उद्भव और विकास
क——-कथाओं का उद्भव और विकास खंडों का वर्गीकरण
कथासाहित्य उतना ही पुरातन है, जितना मानव । मनोविनोद और ज्ञानवर्धन का जितना सुगम और उपयुक्त साधन कथा हैं, उतना साहित्य को अन्य कोई विधा नहीं । कथाओं में मित्र सम्मत अथवा कान्ता सम्मत उपदेश प्राप्त होता है, जो सुनने में बड़ा मधुर और प्राचरण से सुगम जान पड़ता है । यही कारण है कि मानव नेत्रोन्मीलन से लेकर अन्तिम श्वास तक कथा-कहानी कहता और सुनता है । इसमें जिज्ञासा और कुतूहल की ऐसी अद्भुत शक्ति समाहित है, जिससे यह आबाल-वृद्ध सभी के लिये श्रास्वाद्य है । श्रीमद्भागवत में संसारताप से संतप्त प्राणो के लिये कथा को संजोत्रत- बूटी कहा है । कथा की इसी लोकप्रियता और सार्वभौमिकता के कारण भारतीय साहित्य श्रष्टा प्राचीन काल से ही साहित्य की इस विधा को समृद्धशाली बनाते आ रहे हैं ।
भारतीय साहित्य में अर्थवाद के रूप में कथा का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के यमयमी, पुरूरवा - उर्वशी, सरमा और पणिगण जैसे लाक्षणिक संवादों, ब्राह्मणों के स पर्णकाद्रव जैसे रूपकात्मक व्याख्यानों, उपनिषदों के सनत्कुमार-नारद जैसे ब्रह्मषियों की भावमूलक प्राध्यात्मिक व्याख्याओं एवं महाभारत के गंगावतरण, श्रृंग, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल आदि जैसे उपाख्यानों में उपलब्ध होता है ।
अर्धमागधी प्राकृत में भगवान महावीर ने अपना उपदेश दिया है । जैनागमों का संकलन भी अर्धमागधी में हुआ है । अतः प्राकृत कथानों के बीज आगम ग्रन्थों में बहुलता से पाये जाते हैं । निर्युक्ति, भाष्य प्रभृति व्याख्या ग्रन्थों में छोटी-बड़ी सभी प्रकार की सहस्रों कथाएं प्राप्त हैं । प्रागमिक साहित्य में धार्मिक आचार, प्राध्यात्मिक तत्व - चिन्तन तथा नीति और कर्तव्य का प्रणयन कथाओं के माध्यम से किया गया है । सिद्धांत निरूपण, तत्त्वनिर्णय, दर्शन की गूढ़ समस्याओं को सुलझाने और अनेक गम्भीर विषयों को स्पष्ट करने के लिये श्रागम साहित्य कथाओं का सहारा लिया गया है । गूढ़ से गूढ़ विचारों और गहन से गहन अनुभूतियों को सरलतम रूप में जन-मन तक पहुंचाने के लिये तीर्थंकर, गणधरों एवं अन्यान्य आचार्यों ने कथायों का आधार ग्रहण किया है । कथा - साहित्य की इसी सार्वजनीन लोकप्रियता क कारण श्रालोचकों ने कहा है- "साहित्य के माध्यम से डाले जाने वाले जितने प्रभाव हो सकते हैं, वे रचना के इस प्रकार में अच्छी तरह से उपस्थित किये जा सकते हैं । चाहे सिद्धांत प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र-चित्रण की सुन्दरता इष्ट हों, किसी घटना का महत्त्व निरूपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्ष्य बनाया जाय, क्रिया का वेग अंकित करना हो या मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करना इष्ट हो -- सभी कुछ इसके द्वारा संभव हैं ।" श्रतः स्पष्ट है कि लोकप्रिय इस विधा का वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के शोधन और परिमार्जन के लिये श्रागमिक साहित्य से ही उद्गम हुआ है ।
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१ - तव कथामृतं तप्तजावनं, कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवण मंगलं श्रमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः । श्रीमद्भागवत्, १०|३१|ε २ - जगन्नाथ प्रसाद -- कहानी का रचना- विधान, पृ० ४--५।
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