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४--तीर्थ करों की महत्ता प्रकट करने के लिए
प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के जैन कथाकार कथाओं को चमत्कृत बनाने एवं तीर्थ करों की महत्ता बतलाने के लिए देवों का कल्याणकों के समय पाना दिखलाते हैं। जन्म के समय देव सुमेरु पर्वत पर तीर्थ कर को ले जाकर जन्माभिषेक सम्पन्न करते हैं। वैराग्य होने पर लौकान्तिक देव पाते हैं और तीर्थ कर वैराग्य की पुष्टि करते हैं। केवलज्ञान होने पर समवशरण का निर्माण भी देवों द्वारा होता है। निर्माण प्राप्त करने पर अग्नि कुमार जाति के देव अग्नि संस्कार तथा वैमानिक देव निर्वाणोत्सव सम्पन्न करते हैं। देवों के ये सारे कृत्य और उनके द्वारा सम्पन्न को गयी घटनाएं इतनी रूढ़ और पिष्टपोषित हो गय' है, कि सभी पौराणिक कथाओं में एकरूपता मिलेगी। इतना होने पर भी इस कथानक रूढ़ि द्वारा निम्न कथा-तथ्य सिद्ध होते हैं :--
(१) नायक का लोकोत्तरत्व, (२) कथाप्रवाह में गति और सरसता, (३) आश्चर्य और सौन्दर्य उत्पन्न करना, (४) निश्चित उद्देश्य की सिद्धि के लिए फलागम की ओर कथा का विकास। ५--खलनायक बनकर नायक को तंग करने के रूप में
इस कथानाक रुढ़ि का प्रयोग दो प्रकार से उपलब्ध होता है। कहीं तो कोई देव या अन्य कोई दिव्य शक्ति खलनायक बनकर नायक को अन्त तक पीड़ा देने की चेष्टा करती है। कही एसा भी देखा जाता है कि कोई देव स्वर्ग से आकरना सम्बोधन करता है या संकट अथवा कठिनाई के समय नायक को सहायता करता है। हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में इस कथा अभिप्राय के दोनों ही प्रयोग उपलब्ध हैं। एक कथा में बताया गया है कि सुन्दरी का पति नन्द मरकर बन्दर हो जाता है। सुन्दरी के निमित्त से उसे जाति-स्मरण हो जाता है और वह संल्लेखना धारण करता है। फलतः देव हो जाता है और वहां से वह सुन्दरी को सम्बोधन करने आता है । समराइच्चकहा में वेलन्धर का समरादित्य के उपसर्ग का दूर करना भी इस कोटि की कथानक रूढ़ि है । गुणधर्म नाम के सेठ का पुत्र जिनधर्म भी स्वर्ग से आकर अपनी भार्या और मित्र को सम्बोधित करता है और उन्हें विषयों से छुड़ाकर त्याग के मार्ग में लगाता है। सप्तम भव की कथा में इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग कुछ घुमाव के साथ किया गया है। सर्वांगसुन्दरी का विवाह बन्धुदत्त से हो जाता है, सुहाग रात के दिन कोई देव जाकर सुन्दरी से बात करता है, जिससे वह उसके चरित्र पर आशंका कर उसका त्याग कर देता है।
६--दर्शन देकर स्वाभिप्राय निवेदन
जब किसी विषय में विवाद उपस्थित होता है तो कोई दिव्य शक्ति अपना स्वरूप प्रकट कर उस विवाद को शांत करती है। हरिभद्र ने समराइच्चकहा में इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग किया है।
१--उप०गा० ३०--३४, पृ० ४०। २--सं०स०, पृ० ९२८।।
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