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________________ २७१ ब्रह्मचारी था। उसके निर्दोष ब्रह्मचर्य की प्रशंसा सौधर्म इन्द्र की सभा में की गई। मनुष्य स्त्रियों की तो बात ही क्या, भीमकुमार को देवांगनाएं भी अपने व्रत से विचलित नहीं कर सकती हैं । एक देव को भीमकुमार की यह प्रशंसा अच्छी न लगी और वह उसके प्रण की परीक्षा के लिए चल पड़ा। उसने एक सुन्दर दिव्य नारी बनायी तथा एक उसकी वृद्धा मां । वे दोनों भीमकुमार के पास पहुंचीं। वृद्धा ने भीमकुमार से निवेदन किया-" महानुभाव ! मेरी यह सर्वगुणसम्पन्न कन्या आपसे विवाह करना चाहती हैं, आप इसे स्वीकार कर मेरा उपकार करें। यह त्रिलोक सुन्दरी है । इसने प्रतिज्ञा की है, यह आपके साथ ही विवाह करेगी, अन्यथा अपने प्राण दे देगी। आप अब सोच लीजिए कि यदि आप इसके साथ विवाह नहीं करते हैं, तो श्रापको स्त्रीहत्या का पाप लगेगा । भीमकुमार ने विषयों की निस्सारता का विचार करते हुए मौन व्रत धारण किया। उस देव भीमकुमार को विचलित करने के लिए अनेक प्रकार के प्रयास किये, पर वह सफल न हो सका। अन्त में उसके व्रत से प्रभावित होकर वह प्रत्यक्ष प्रकट हुआ और चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। राजा श्रेणिक की परीक्षा भी एक देव ने इसी प्रकार की है ।" हरिभद्र ने इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग निम्न कार्यों के लिए किया है --- ( १ ) कथा को नयी दिशा में मोड़ देने के लिए, ( २ ) नायक की महत्ता और गौरव दिखलाने के लिए, (३) कथा में कुतूहल और आश्चर्य बनाये रखने के लिए। ३ - - अलौकिक और आश्चर्यजनक कार्यों के सम्पादनार्थ दिव्यशक्ति का प्रयोग जब नायक या नायिका अपने पुरुषार्थ से परास्त हो जाते हैं और उन्हें सफलता नहीं मिल पाती है, तो कोई दिव्य शक्ति श्राकर सहायता करती हैं । कभी-कभी यह कथानक रूढ़ि नायक की महत्ता दिखलाने के लिए भी आती है । इसका प्रयोग हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में हुआ है । एक कथा में बताया गया है कि एक भिल्लराज श्रास्थापूर्वक शिवजी की भक्ति करता था । वह स्नान करने के पश्चात् गन्दे जल से शिव का अभिषेक करता और मनमाने ढंग से फल-फूल चढ़ाता। शिव जी प्रसन्न होकर भिल्लराज से बातें करते । एक दिन भक्त ब्राह्मण ने शिवजी को ताना मारते हुए कहा -- " प्राप पड़े पक्षपाती हैं। मुझे भक्ति करते वर्षों बीत गये, पर आप प्रसन्न नहीं हुए । इस मूर्ख भील से इतने प्रसन्न हैं कि इससे घंटों बातें करते हैं ।" शिवजी ने एक दिन अपना एक नेत्र उखाड़कर अलग कर दिया। ब्राह्मण श्राया और देखकर दुःखी हुआ, पर पूजा कर चलता बना। भील भी आया, शिव को एक नेत्र न देखकर उसने अपना एक नेत्र शिवजी को लगा दिया। शिव जी ने प्रत्यक्ष होकर ब्राह्मण से कहा -- देखो अपनी और भिल्ल की भक्ति में अन्तर में इसीलिए उससे प्रसन्न होकर बातें करता हूं । अभिप्राय द्वारा निम्न तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है : इस कथा नायक का उत्कर्ष, कथा में प्राश्चर्य के सूजन द्वारा मोड़, भावनाओं की महत्ता, (४) चमत्कार सृजन । -- उपदेश पद गाथा २४५ - २५०, पृ० १७५ । २- द० हा०, पृ० २०४ | ३ - - दं० हा०, पृ० २०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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