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होती है, जिनकी पुनरावृत्ति द्वारा उक्त कलाओं में नूतन शैलियों का विकास होता रहता है। इन पद्धतियों को विद्वानों ने कलारूढ़ि की संज्ञा दी है। इस प्रकार लोकनृत्य
और लोकसंगीत में भी स्वतंत्र रूप से अनेक रूढ़ियां अथवा परम्परागत विशिष्ट प्रणालियां होती हैं।
टी० शिपले ने रूढ़ि या अभिप्राय शब्द का तात्पर्य बतलाते हुए लिखा है--"मोटिव शब्द से अभिप्राय उस शब्द या उस विचार से है, जो एक ही सांचे में ढले जान पड़ते है और किसी कृति अथवा एक ही व्यक्ति की भिन्न-भिन्न कृतियों में एक जैसी परिस्थितियां अथवा एक जैसी मनःस्थिति और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए एकाधिक बार प्रयुक्त होते हैं।
शिपले द्वारा दी गयी मोटिव या अभिप्राय की यह परिभाषा बहुत व्यापक है, किन्तु कला अथवा साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में यह विभिन्न रूढ़िगत विशेषताओं की परिचायिका है। एक बात, जो सामान्य रूप से प्रत्येक क्षेत्र पर लागू हो सकती हैं, वह यह है कि एक ही सांचे में ढले हुए किसी ऐसे विचार, शब्द अथवा घटना की पुनरावृत्ति जो सम्बद्ध रचना अथवा रचनाओं को एकरूपता प्रदान करती है। स्थूल रूप से रूढ़ियों या अभिप्रायों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है---(१) कलात्मक और (२) साहित्यिक । कलात्मक रूढ़ियां वास्तु, मूत्ति, चित्र और संगीत आदि कलाओं में व्यवहृत होती हैं। ये ढ़ियां इन कलाओं में चमत्कार और आकर्षण इन दोनों ही गुणों को उत्पन्न करती हैं।
साहित्यिक रूढ़ियां प्रधानतः दो वर्गों में विभक्त है--(१) काव्य रूढ़ियां और (२) कथा रूढ़ियां। काव्य रूढ़ियों को कविसमय' भी कहा जाता है। काव्य में अभिपाय मुख्यरूप से उस परम्परागत विचार--प्राइडिया को कहते हैं, जो अलौकिक और अशास्त्रीय होते हुए भी उपयोगिता और अनुकरण के कारण कवियों द्वारा ग्रहीत होता है और बाद में चलकर रूढ़ि बन जाता है। __ कथानक रूढ़ि का अर्थ है कथा में बार-बार प्रयक्त होने वाले ऐसे अभिप्राय जो किसी छोटी घटना- इन्सीडेन्ट अथवा विचार---आइडिया के रूप में कथा के निर्माण और उसे आगे बढ़ाने में योग देते हैं। ये रूढ़ियां अथवा अभिप्राय किसी-न-किसी ऐसे लोक-विश्वास अथवा जन-सामान्य विचार पर आधारित होते हैं, जिनका वैज्ञानिक दृष्टि से कोई विशेष महत्व नहीं होता। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी अभिप्राय है, जिन्हें बिलकुल असत्य नहीं कहा जा सकता, पर इनमें कुछ तथ्यांश अवश्य रहता है। यथार्थ के साथ इन अभिप्रायों का सम्बन्ध अवश्य रहता है। सारांश यह है कि रूढ़ि या अभिप्राय वह छोटे-से-छोटा और पहचान में प्रानेवाला तत्त्व है, जो यह बतलाता है कि किसी विशेष प्रकार की कथा के कौन-कौन से उपकरण दूसरे प्रकार की कथा में प्रयुक्त हुए हैं। कथानक रूढ़ियों या अभिप्रायों के विश्लेषण से कथाओं के उपकरण पर तो प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही कथातत्त्वों पर भी प्रकाश पड़ता है।
शिष्ट या अभिजात कोटि के साहित्य में मिलने वाली कथानक रूढ़ियां मूलतः लोक साहित्य या लोककथाओं की देन है। ऐसी रूढ़ियां कम ही मिलेंगी, जिनका परम्परा अथित लोककथाओं से कोई सम्बन्ध न हो। कथानक रूढ़ि के आदि स्रोतों के रूप में नाना प्रकार के लोकाचारों, लौकिक विश्वासों और लोकचिन्ता द्वारा उत्पन्न आश्चर्यजनक कल्पनाओं
--डिक्शनरी ऑफ वर्ल्ड लिटरेचर टर्स, पृ० २७४ । २---यशास्त्रीयमलौकिकं च परम्परायातं यमर्थमुपनिबन्धन्ति कवयः स कविसमय : काव्यमीमांसा चतुर्दश अध्याय, पृ० १६० ।
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