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(८) कुतूहल --
लोककथाएँ प्रायः मौखिक रूप में कही सुनी जाती हैं । यह कहना - सुनना तभी हो सकता है, जब हममें कुतूहल प्रवृत्ति रहे । प्रायः कथा में यह जिज्ञासा रहती हैं कि For क्या हुआ की प्रवृत्ति अभिजात कथाओं में भी पायी जाती है, पर इसका जितना प्राधिक्य लोककथा में रहता है, उतना अभिजात कथा में नहीं । कुतूहल की वृत्ति के कारण लोक प्रचलित विश्वासों, रीति-रिवाजों, प्रथाओं और परम्पराओं का सुन्दर विश्लेषण हरिभद्र की कथाओं में आया है । हरिभद्र ने अपनी समराइBase में प्रधान कथा और अवान्तर कथाओं का ऐसा सुन्दर गुम्फन किया है, जिससे कथा में सर्वत्र कुतूहल वृत्ति सुरक्षित है । यह प्रवृत्ति हमें इनकी लघुकथाओं में भी पायी जाती है। बुद्धि चमत्कार सम्बन्धी जितनी लघुकथाएं हरिभद्र की हैं, उनमें कुतूहल की मात्रा अधिक से अधिक है । कुतूहल प्रवृत्ति के कारण ही कथाओं की उपन्यास के समान हो जाती है और यही कारण है कि कथाओंों पर कथाएं निकलती चली जाती हैं । एक कथा का सिलसिला समाप्त नहीं होता है, दूसरी कथा प्रारम्भ हो जाती है । जब तक दूसरी में क्या हुआ की प्रवृत्ति बनी ही रहती है, तबतक तीसरी कथा उपस्थित होकर एक नया कुतूहल उत्पन्न कर देती हैं । इस प्रकार हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में कुतूहल की प्रवृत्ति आद्योपान्त घनीभूत है । लोककथा का कुतूहल प्रमुख गुण हैं । बड़े-बड़े कथक अपनी कथा को लोकप्रिय बनाये रखने के लिये कुतूहल का सन्निवेश करते हैं । इस प्रकार की कथाओं में, केवल कल्पना ही नहीं रहती, बल्कि निजन्धरोपना अधिक रहता है ।
लम्बाइ
(९) मनोरंजन --
मनोरंजन कथा का प्रमुख गुण हैं । लोककथाओं में जिस प्रकार कर्मतत्व अनुस्यूत है, उसी प्रकार मनोरंजन भी। मनोरंजन के प्रभाव में कथा में कथारस की प्राप्ति ही नहीं हो सकती है । अतः मनोरंजन गुण का कथा में रहना आवश्यक हैं । हरिभद्र ने अपनी प्राकृत कथाओं को लोकरुचि के अनुकूल गढ़ा है । श्रतः मनोरंजन गुण का कथा में पूर्णतया सम्पृक्त रहना श्रावश्यक है । ग्रामीण गाड़ीवान और इतना बड़ा लड्डु प्रभृति कथाएं शुद्ध मनोरंजन उत्पन्न करती हैं ।
(१०) अमानवीय तत्त्व-
अमानवीय से तात्पर्य उन कार्यों से हैं, जिन्हें साधारणतः मनुष्य नहीं कर सकते हैं । इन असंभव और दुस्सह कार्यों के करने के लिये लोककथाओं में एकाध पात्र इस प्रकार का कल्पित किया जाता है, जो अमानवीय कार्यो को कर दिखाता है । पशु-पक्षियों की बोली को समझना, रूप परिवर्तन कर लेना, श्रसंभव बातों की जानकारी प्राप्त कर लेना, अग्नि में प्रविष्ट होने पर भी भस्म न होना आदि बातें इसके अन्तर्गत आती हैं । हरिभद्र ने अपनी प्राकृत कथानों में इस तत्त्व का पूरा प्रयोग किया है । समराइच्च कहा के प्रथम भव में गुणसेन के मुनि बनने पर अग्निशर्मा के जीव व्यन्तर ने उसे कष्ट दिया । बानमन्तर विद्याधर है और गुणचन्द्र को अनेक प्रकार से कष्ट देता है । गुणधर शिकार खेलने जाता है । मार्ग में एक स्थान पर सुदत्त नाम के मुनिराज दिखलायी पड़ते हैं । श्राखेट प्रेमी कुमार गुणधर को इस समय एक मुनि का मिलना
१- द० हा०, पृ० ११८- ११६ ।
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