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कर सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र ने खंगिल के चरित्र में उदार मानवीय गुणों का समावेश कर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की सूचना दी है। खंगिल राजादेश से धनकुमार का बध करना चाहता है। तलवार का वार करता है, पर करुणा से द्रवीभूत हो तलवार हाथ से छट जाती है, वह भूमि पर गिर पड़ता है। विचित्र दृश्य है। मानवता और कर्तव्य के द्वन्द्व में पड़ा खंगिल चित्रलिखित के समान है। शील में अद्भुत रस है। हत्या और लूट के संस्कारों में पला-पुषा व्यक्ति एक अपरिचित मनुष्य के दर्शन मात्र से इतना परिवर्तित हो जाय ? सुमंगल पुत्र के जीवित किये जाने पर राजा धन से प्रसन्न हो जाता है। वह वरदान मांगने को कहता है, पर धन स्वयं वरदान न मांग कर खंगिल चाण्डाल को ही वर देने का अनुरोध करता है। श्रावस्ती नरेश चाण्डाल से वर मांगने का आदेश देता है। खंगिल अनुरोध करता है--"प्रभो ! आप प्रसन्न हैं तो मुझे सज्जननिन्दित पेशे से मुक्त कर दीजिए"। कितना उदात्त चरित है खंगिल का। वह हिंसा से घृणा करता है। वह कर्म चाण्डाल नहीं है, जाति चाण्डाल भले ही बना रहे। तप प्रसन्न होकर एक लक्ष दीनार उसके गांव को पुरस्कार में देता है। खंगिल को इस पुष्कल धन प्राप्ति से हर्ष नहीं, उसे परमानन्द है तो निरपराधी धन के मुक्त हो जाने से। यह यथार्थोन्मुख आदर्शवाद स्वस्थ समाज के निर्माण में कितना सहायक हो सकता है। संक्षेप में हम खंगिल के शील को रमणीय कह सकते हैं। उसे अमानवीय कृत्यों से विचिकित्सा हो गयी है। धार्मिक भावनाओं और आदर्श प्रेरणाओं के बीच खंगिल का चरित्र विद्युत्प्रकाश विकीर्ण करता चलता है। ____ मौर्य चाण्डाल और कालसेन को अपने घृणित पेशे से अरुचि नहीं है। वे दोनों कर्मठ है, कर्म क्षेत्र में जुटे रहकर भी अपने शील को उन्नत बनाते हैं। परिस्थितियों के झटके खाकर इन दोनों में परिवर्तन पाता है। दुःख या विपत्ति ही सच्ची अनुभूति की कसौटी है। अतः ये दोनों ही विपत्ति आने पर सहानभति करना सीखते हैं तथा करुणा का जन्म भी विपत्ति के पश्चात् होता है। मौर्य चाण्डाल का कार्य फांसी लगाना है, जीवनदण्ड के अपराधियों को श्मशान भूमि में ले जाकर वह फांसी देता है। धरण के द्वारा प्रत्युपकार किये जाने से इनके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। धीरे-धीरे इनका शील विकसित होता जाता है और हिंसा छोड़कर अहिंसक बन जाते है। इनकी यह धर्मरुचि दुष्कर्मों को छिपाने का प्रावरण मात्र नहीं है, बल्कि सच्चा विरेचन है, जिससे इनका चरित्र उदात्त हो जाता है। प्रशिव का रेचन होता है और शिव की प्रतिष्ठा होती जाती है। दोनों के शील में राजस् और तामस् का रेचन होकर सत्व की प्रतिष्ठा की गई है।
भिल्लराज का चरित्र तुलना चरित्र है। यह शील की वह बड़ी रेखा है, जिसके समक्ष परम्परा से पूजा भक्ति का पेशा करने वाले ब्राह्मण पुजारी की भक्ति की रेखा छोटी हो जाती है। हृदय की सच्ची निष्ठा जिस स्थान पर रहती है, वहां आकर्षण अवश्य होता है। प्रेम और भक्ति में वह विद्युच्चुम्बक है, जिससे चेतन की तो बात ही क्या जड़ भी आकृष्ट हो सकता है। जहां भक्ति में भी शब्दों की कलाबाजी है, हदय का गाढ़ अनुराग नहीं, वहां पाराध्य का दर्शन कहां ? श्रद्धय के प्रति गाढ़ानुराग और उसके कष्ट से किसी भी प्रकार के कष्ट का अनभव करना शील की प्रतिक्षण नतन सष्टि शिव के नेत्र नहीं रहने पर भिल्लराज को क्रोध या खेद करने की आवश्यकता नहीं। पाराधक को नेत्रहीन रहने से उसका शील ही नेत्रहीन हो जायेगा। अतः उसके मन
१-स०, पृ० २६६-२६७ । २--वही, पृ० २६७ ॥
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