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अग्निशर्मा के चरित्र को पहली मोड़ उस समय आती है, जब वह कुमार गुणसेन के खेलों से ऊबकर विरक्त होता है। उसके अहं को चोट लगती है, अपमानित या लांछित जीवन व्यतीत करना उसे पसन्द नहीं है। प्रकृति से वह अहंवादी है, अतः वास्तविक जगत में जिस कार्य को नहीं कर सकता है, उस कार्य को वह तपश्चरण द्वारा अलौकिक सिद्धियां प्राप्त करके करना चाहता है । अग्निशर्मा के आन्तरिक गुणों के साथ उसके शरीर की प्राकृति का लेखक ने कितना सुन्दर और स्वाभाविक चित्रण किया है।
मोटा और त्रिकोण मस्तक, नील-पीत वर्ण को गोल अांखें, स्थानमात्र से दिखलायी पड़ने वाली चिपटी नाक, विवरमात्र कान, अोठों के द्वारा आच्छादित करने पर भी दिखलायी पड़ने वाले लम्बे दांत, लम्बी टेढ़ी गर्दन, असमान छोटी-छोटी बाहें, अत्यन्त छोटा वक्षस्थल, वक्र और असन्तुलित बड़ा पेट, एक तरफ ऊंचा और अत्यन्त स्थूल कटि प्रदेश, असमान रूप से प्रतिष्ठित उरुयुगल, अत्यन्त सूक्ष्म, कटिन और छोटी-छोटी जांघे, बेढंगे लम्बे-लम्बे पैर एवं अग्नि की लपटों के समान पिंगल केश अग्निशर्मा के थे।
अग्निशर्मा को शरीराकृति का यह यथार्थवादी चित्रण उसको कौतुक-क्रीड़ा का केन्द्र स्वयं ही बना देता है । लेखक ने प्राकृति का ऐसा स्वाभाविक और जीवन्त चित्र उपस्थित किया है, जिससे आगे वालो कथावस्तु का विकास सीमा के अनुरूप होता है । अग्निशर्मा को तापसी जीवन व्यतीत करने के लिये बाध्य होने का एक सबल कारण यह आकृति ही है । यह सत्य है कि इस प्राकृति के चलते अग्निशर्मा सर्वत्र उपहास का पालम्बन बनता । अष्टावक्र के समान यदि वह आत्मज्ञानी होता और साथ ही वैसी ही सहनशीलता भी उसमें रहती, तो वह अवश्य सामाजिक प्रतिष्ठा पाता। भारत की परम्परा रही है, कि विकृत प्राकृति वाले भी गुणों से युक्त होने पर सम्मान भाजन बनते हैं। अतः हरिभद्र का अग्निशर्मा को वास्तविक जगत के संघर्ष से हटाकर अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति में लगा देना सूक्ष्म शीलस्थापत्य का द्योतक है । अतः परिस्थितियों से प्रताड़ित प्रत्येक मानव यही करता, जो अग्निशर्मा ने किया है। उसके उग्रतपश्चरण के पीछे भी यही मनोविज्ञान कार्य कर रहा है । अग्निशर्मा के अन्तर्द्वन्द्वों की शांति का एकमात्र उपाय यही था, जो हरिभद्र ने अग्निशर्मा के द्वारा कराया है ।
अग्निशर्मा के चरित्र की दूसरी मोड़ उस स्थल पर आती है, जब भोजन प्राप्ति की आशा लिए तीसरी बार वह राजभवन में जाता है, पर उस अशक्त और असमर्थ साधु की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता, फलतः निराश हो वह लौट आता है। लौटते समय उसके मन में भयंकर प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। उसके अवचेतन में छिपे हुए अहं भाव और क्रोध फुफकार मारते हुए दृष्टिविष भुजंग के समान उद्बुद्ध हो जाते है। वह राजकुमार गुणसेन से प्रतिशोध लेने का संकल्प करता है। उसका विवेक तिमिराच्छन्न हो जाता है।
__ वास्तव में अग्निशर्मा की जीवनकथा का यह एक करुणापूर्ण मार्मिक-स्थल है। जिस व्यक्ति के मंह में तीन महीनों से अन्न का दाना न पडा हो और निश्चित अवसर पर अब भी अन्न का दाना मिलने की संभावना नहीं हो, उसकी स्थिति केवल संकेत या अनुमान से ही जानी जा सकती है। अतः इस प्रकार के शील को खड्गशील कहा जा सकता है। अग्निशर्मा द्वन्द्वों के बीच से अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करता है। वह अपनी ज्वाला से स्वयं ही जलने वाला है। जीवन-लीला के पर्यवसान तक उसके
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१--स० प्र० भ०, पृ० १० ।
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