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कर, अग्निशर्मा को पुनः अपने यहां भोजन का आमन्त्रण देता है। जब अन्तिम बार अग्निशर्मा बिना भोजन किये लौट जाता है, तब वह फ्लैश-बैक पद्धति का अवलम्बन लेकर सारी विगत घटनाओं को अपने मस्तिष्क-पटल पर अंकित कर लेता है । वह राजा के ऊपर सन्देह करता है, सारी प्रार्थनाओं को उसका कपटजाल मानता और उससे बदला चुकाने के लिये निदान बांध लेता है।
अन्तिम बार अग्निशर्मा को बिना भोजन ग्रहण किये लौट पाने के कारण राजा गुणसेन को मार्मिक व्यथा होती है, वह उसका समाचार लाने के लिये सोमदेव पुरोहित को भेजता है तथा उसके अत्यन्त रुष्ट होने का समाचार जानकर भी स्वयं मिलने आता है । कुलपति से हार्दिक क्षोभ व्यक्त करते हुए बातें करता है तथा अपने पाप के प्रायश्चित्त के लिये अग्निशर्मा का दर्शन भी करना चाहता है । कुलपति उसे परिस्थिति से अवगत कराकर लौटा देते हैं। प्रात्मग्लानि से विभोर राजा गुणसेन बसन्तपुर से क्षितिप्रतिष्ठ में लौट आता है । यहां राजा गुणसेन के चरित्र
प्राता है। यहां राजा गणसेन के चरित्र में सावधानी या प्रमाद अवश्य है। तीन बार एक मासोपवासी तपस्वी को आमन्त्रित कर भी उसके भोजन की व्यवस्था न कर सकने में उसकी उपेक्षा या लापरवाही अवश्य रही होगी। जब प्रथम बार तपस्वी अग्निशर्मा लौट जाता है, तब उसे आमन्त्रित कर उसकी व्यवस्था करनी चाहिये थी। अतः तर्क के द्वारा यह माना जा सकेगा कि राजा से असावधानी या प्रमाद हुमा है । यह संभव है कि उसने बुद्धिपूर्वक यह प्रमाद न किया हो। इसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने से पता चलता है कि अवचेतन में छिपी हुई अग्निशर्मा को चिढ़ाने की भावना ही यहां काम कर रही है, जिससे उससे असावधानी होती जाती है ।
धर्मभीर और संसारभीर भी गुणसेन है। प्राचार्य विजयसेन से विभावसु के चरित और कषाय विकारों को सुनकर उस विरक्ति होती है और श्रमण-व्रत धारण कर प्रात्मशोधन करने में तत्पर होता है । गुणसेन को प्रतिमा योग में स्थित देखकर अग्निशर्मा का जीव विद्युत्कुमार आकर अनेक प्रकार के उपद्रव शुरू करता है । सैकड़ों प्रकार के उपसर्ग देता है, पर गुणसेन सुमेरु की तरह अडिग है । वह सद्धर्म का महत्व समझता है । अतः वह "सत्वेषु मैत्री" की भावना रखता हुआ मरण कर सौधर्म स्वर्ग के चन्द्रानन विमान में देव होता है ।
गुणसेन के चरित्र का विकास कथोपकथनों के बीच से अभिनयात्मक पद्धति में हुमा है । चरित्र में धार्मिक आस्था और संस्कारजन्य मान्यताएं निहित हैं। आत्मनिष्ठा की भावना प्राद्यन्त व्याप्त है । समाजशास्त्रीय दृष्टि से इस चरित्र को हम सात्विक प्रकृति का कह सकते हैं।
अग्निशर्मा। इसके विपरीत प्रतिनायक अग्निशर्मा का चरित्र तामसी प्रकृति का है । यद्यपि समाज शास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हरिभद्र को अग्निशर्मा के चरित्र-चित्रण में अधिक सफलता प्राप्त हुई है । इसका कारण यह है कि तीसरी बार राजमहल से बिना भोजन पाये लौट आने पर उसका क्रोधित होना स्वाभाविक है । तीन महीनों तक लगातार भोजन-पानी न ग्रहण करने वाला व्यक्ति प्राग्रहपूर्वक राजमहल में बुलाया जाय और भोजन के अवसर पर पुत्र जन्मोत्सव में लोग इतने व्यस्त हो जायं कि उसे कोई पूछे नहीं, इस स्थिति में तपस्वी का क्षुब्ध हो जाना अत्यन्त नैसर्गिक है। जो व्यक्ति हाड़-मांस से निर्मित हो, तपस्वी हो और साथ ही उच्च-कुल में जन्मा हो, उसका उक्त परिस्थिति में क्रुद्ध न होना ही आश्चर्य की बात होती तथा कथाकार का यह शोल नपुंसक माना जाता। पर शील-स्थापत्य के मर्मज्ञ हरिभद्र में अग्निशर्मा के चरित्र में जो मोड़ें दिखलायी हैं, वे उसके चरित्र को सप्राण और मौलिक बनाने में पूर्ण सक्षम है।
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