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(४६) महाबल और चित्रकार ..
उप० गा० ३६२--३६॥
पृ० २१७। (४७) जितशत्रु और नैमित्तिक ..
उप० गा० ३३०--३३६ । (४८) मंत्री और नैमित्तिक
उप० गा०३३४--३३६। (४६) जिनधर्म और सूपकार
उप० गा० ५०६--५१०। (५०) कमलसेना और सुदर्शन
उप० गा० ५२६--२३० । (५१) श्रीमती और सोमा
उप० गा० ५५०--५६७ । उपर्युक्त कथोपकथनों में से दो-चार कथोपकथन का विश्लेषण कर प्राचार्य हरिभद्र सूरि की कला की महत्ता सूचित की जायगी। ___ कुलपति के आश्रम में अग्निशर्मा के पहुंचने पर उन्होंने अग्निशर्मा का स्वागत किया और पूछा--"आप कहां से आये है ? अग्निशर्मा ने अपनी आत्मकथा निवेदित की।" ___ तापस--"वत्स ! पूर्वकृत कर्मों के विपाक से ही प्राणियों को कष्ट सहन करना पड़ता है । अतः राजाओं के द्वारा किये गये अपमान की पीड़ा, दारिद्यदुःख का परिताप, कुरूपता जन्य कलंक एवं वियोगादि जन्य व्यथा आदि को दूर करने वाला और शान्ति देने वाला यह आश्रम ही है । कुसंगति से उत्पन्न दुःख, लोगों के अपमान और दुर्गति, पतन आदि कष्टों को वनवासी नहीं प्राप्त करते हैं।"
अग्निशर्मा--"भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है। आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं। और मुझे दीक्षा के योग्य समझते हैं, तो सन्यास देने को कृपा कोजिये।" ____ इस वार्तालाप से अग्निशर्मा की आत्मग्लानि और तापसी की शिष्य मुड़ने वाली प्रवृत्ति पर सुन्दर प्रभाव पड़ता है । यथार्थवादी दृष्टिकोण से यह भी कहा जा सकता है कि अग्निशर्मा अपमान के भय से पलायनवादी मनोवृत्ति से आक्रान्त है । उसके अहंभाव को यथार्थ जगत् में पुष्ट होने का अवसर नहीं है, अतः वह काल्पनिक जगत् में अपने "अहं" को चरितार्थ करता है और यही कारण है कि प्रारम्भ में ही कठोर व्रत धारण कर लेता है।
शिखिकुमार और जालिनी के बीच में हुए वार्तालाप से नारी की मायाचरिता का तो पता लगता ही है, साथ ही साधु और असाधु के चरित्र की स्पष्ट झांकी मिल जाती है । जालिनी, शिखिकुमार की मां है, यह पूर्व संस्कार के कारण शिखिकुमार को विष प्रयोग आदि के द्वारा मार डालना चाहती है । वह अपना विश्वास उत्पन्न करने के लिये व्रत ग्रहण करती है । यह वार्तालाप भी प्रभावोत्पादक है ।
नारी जिस व्यक्ति से वासनामय प्रेम करती है, उसे प्राप्त करने की पूरी चेष्टा करती है । अपने अनुचित प्रेम का ठुकराया जाना भी इसे पसन्द नहीं है । जो उसके अनुचित प्रेम-प्रस्ताव को ठुकरा देता है, वह उसके प्राणों की ग्राहिका बन जाती है । छल-कपट का जाल रचने में वह बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को भी मात कर देती है । उसको इस बुद्धि के समक्ष ब्रह्मा, विष्णु, वृहस्पति आदि भी परास्त हो जाते हैं। रानी अनंगवती सनत्कमार के समक्ष अपना अनचित प्रेम-प्रस्ताव रखती है। विवेकी सनत्कमार उस प्रस्ताव से सहमत नहीं होता । रानी कुमार के चले जाने पर अपना रौद्र वेष बनाती है और महाराज ईशानचन्द्र के समक्ष कुमार को अपराधी सिद्ध करती है । हरिभद्र ने सनत्कुमार और महारानी अनंगवती के बीच सुन्दर और स्वाभाविक वार्तालाप १५--२२ एडु.
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