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खण्डपाना--' -" एक बार मेरी सखी उमा ने देव-दानव सभी को आकर्षित करने की मुझे विद्या दी । उससे मैंने सूर्य को आकर्षित किया और उसके सम्भोग से मेरे एक महाबलवंत पुत्र पैदा हुआ, जिस सूर्य का प्रचंड तेज इस पृथ्वी को ही तपा रहा है, उसके साथ सम्भोग करने पर भी मैं जीवित कैसे रही ? जल कर मर क्यों न गयी ?"
नहीं जली, तो तू कैसे जलकर
कण्डरीक --- " जब कुन्ती सूर्य के साथ सम्भोग करके मर जाती ?"
44.
खण्डपाना--' मैं भी अपना स्त्री रूप धारण कर घर लौट आई। मेरे पिता नदी तट पर वस्त्र ले जाने के शकट को लौटा लाने के लिये गये। उन शकटों को रस्सों और बैलों को शृगालों और कुत्तों ने खा डाला था । इसलिये मेरे पिता चूहे की एक पूंछ कहीं से खोजकर लाये । श्रापलोग बतलाइये कि यह सत्य है कि असत्य ?'
शश -- - " चूहे की पूंछ का इतना बड़ा होना पूर्णतया विश्वसनीय है, क्योंकि पुराणों के अनुसार शिव-लिंग आदि-अन्तहीन लम्बा था और हनुमान की पूंछ भी इतनी ही लम्बी थी कि वह लंका के चारों ओर लपेटी जा सकी और उस पर कपड़े बांध कर और उन पर तेल डालकर आग लगा दी गयी । इसलिये चूहे की पूंछ की लम्बाई में सन्देह नहीं किया जा सकता है ।"
धूर्त्ताख्यान के पांचों ही प्राख्यान वार्त्तालाप द्वारा ही विकसित होते हैं । इन कथोपकथनों में धूत्तों के स्वभाव, गुण, हृदय श्रादि का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है ।
भोले-भाले ग्रामीणों को धूर्त किस प्रकार चकमा देकर ठग लेते हैं और धूर्ततापूर्ण अपने वाग्जाल में उलझाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, यह ग्रामीण और धूर्तों के वार्तालाप से स्पष्ट है ।
ग्रामीण गाड़ीवान में भी धूर्त्तगोष्ठी के वार्त्तालाप और कार्यों का निदर्शन विद्यमान है ।
श्रापसी वार्त्तालाप पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई, गुरु-शिष्य, मित्र-मित्र, प्रेमी-प्रेमिका, पुत्र माता, नायिका की सखी और नायक आदि के बीच हुए हैं। इन वार्तालापों से कथा विकास में तो सहायता मिली ही है, पर पात्रों के चरित्र चित्रण में अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है ।
आपसी वार्तालापों में निम्नांकित वार्त्तालाप प्रधान हैं
:--
भग०
(१) अग्निशर्मा और तापस
(२) गुणसेन और तापस कुमार
( ३ ) कुमार और अग्निशर्मा
(४) अग्निशर्मा और तपस्वी (५) कुमार गुणसेन श्रौर कुलपति
(६) सोमदेव और अग्निशर्मा (७) प्रियंकरा और कुसुमावली (८) माता और कुसुमावली (e) शुक और लीलारति (१०) सोमदेव और शिखि कुमार (११) शिखि कुमार और जालिनी (१२) धन और धनश्री
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सं० स० पु० १३ ।
सं० स० पृ० १७ ।
सं० स० पृ० १८, १६, ३० ।
सं० स० पृ० २२, ३५ ।
सं० स० पृ० २५ ।
सं० स० पृ० ३६ ।
सं० स० पृ० ८० ।
सं० स० पृ० ८१ ।
सं० स० पृ०
सं० स० पृ०
सं० स० पृ०
सं० स० पृ०
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१०८ ॥
२२५ ।
२२८ ।
२४१ ।
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