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यह जो कहा गया है कि यौवन कुसुमसार -- इत्र के समान सारभूत है, इसका भी गूढार्थ यौवन का श्रास्वादन करना ही हैं, निष्क्रमण करना नहीं । कामदेव परलोक साधन में विघ्नोत्पादक है, यह कथन भी असंगत है, क्योंकि परलोक का अस्तित्व ही नहीं है, अन्यथा परलोक से श्राकर कोई आत्मा को दिखलाये । विषय विपाक दारुण हैं, यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता है । यतः भोजन का विपाक भी दारुण है, अतएव भोजन का भी त्याग करना चाहिए । हिरण हैं, इसलिए जो नहीं बोते हैं, कथन के समान संसार की स्थिति है, पर उपाय जाननेवाले व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी असंभव या कठिन नहीं हूँ । यह जो कहा गया है कि मृत्यु अनिवार्य है, यह भी बच्चों की सी बात हैं, क्योंकि निष्क्रमण करने पर भी मृत्यु की अनिवार्यता कम नहीं होती हूँ । श्रमण हो जाने पर भी मृत्यु श्रायेगी । मरना है, इस बात को सोचकर तो कोई श्मशान में नहीं रहने लगेगा । परलोक के न होने पर दुःख सेवन करने से तो सुख प्राप्त नहीं हो जायगा, किन्तु सुख सेवन करने से ही सुख प्राप्त होगा । यह सत्य है कि जिसका अभ्यास करते हैं, उसकी उन्नति देखी जाती हैं, विपर्यय नहीं होता है ।
fire के उक्त कथन को सुनकर अचार्यश्री बोले --
"यह जो आपने कहा है कि कुमार को किसीने ठगा है, इसका उत्तर यह हैं कि इस महानुभाव को पूर्वजन्म में की गई अच्छी भावनाओं के अभ्यास के कारण कर्मावरण के लघु होने से तथा वीतरागी द्वारा प्रणीत श्रागम का अभ्यास करने से क्षपोपशम हो गया है, जिससे तत्त्वज्ञान को स्वयं समझने के कारण इन्हें विरक्ति हो गयी है । जो श्रापने यह कहा है कि पंचभूतों से भिन्न परलोकगामी जीव नहीं हैं, किन्तु इन पंचभूतों का ही स्वाभाविक रूप से इस प्रकार परिणमन होता है, जिससे जीव की उत्पत्ति हो जाती हैं, इन भूतों से पृथक जीव की कोई सत्ता नहीं है । यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ये भूत तो सर्वथा अचेतन हैं, फिर इनका इस प्रकार का स्वाभाविक परिणमन किस प्रकार संभव हँ ? जिससे प्रत्यक्ष अनुभव में श्राने वाली गमन श्रादि क्रियाओं की चेष्टा सम्पन्न क्रियाशील चेतना उत्पन्न हो जाय । जो शक्ति अलग-अलग प्रत्येक में नहीं होती है, वह शक्ति समुदाय में भी नहीं आ सकती है । जिस प्रकार बालू के प्रत्येक कण से तल नहीं निकाला जा सकता है, उसी प्रकार उसके समूह से भी तेल नहीं निकल सकता है । यदि इन भूतों में से प्रत्येक को चेतन मानते हैं तो अनेक चेतनाओं का समुदाय पुरुष होगा और एकेन्द्रियादि जीवों के साथ घटादि को भी जीव मानना पड़ेगा । पर प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता हूँ कि घटादि में चेतना नहीं है । अतः पंचभूतों से भिन्न परलोक जानेवाला चेतन जीव हैं । यह जो कहा गया है कि जब इन भूतों का समुदाय विघटित हो जाता है तो पुरुष मृत कहलाने लगता है, यह भी केवल वचनमात्र हैं, यतः चतन्य ग्रात्मा इन भूतों से पृथक अनुभव में प्राती है । अनुभवसिद्ध चेतना का निषेध नहीं किया जा सकता है |
घड़े में बन्द चिड़िया की तरह परलोक जाने वाली श्रात्मा नहीं हं । इसका निषेध भी ऊपर के तर्कों से हो जाता है, यतः अचेतन से चेतन भिन्न हैं । परलोक के नहीं होने पर मिथ्याबुद्धि के कारण स्वाभाविक सुन्दर विषय-सुखों को छोड़कर शरीर भिन्न आत्मा को दिखलाओ, यह कथन भी भ्रमात्मक हैं, यह कैसे सिद्ध होगा ? परलोक का aftare जब सिद्ध है तो फिर उसके प्रति मिथ्या प्राग्रह क्यों कहलायेगा ? पशुओं के लिए भी साधारण रूप से सेवनीय, विडम्बनामात्र, केवल परिश्रम कराने वाले, निर्वाण के शत्रु और अज्ञात रूप से सुखाभास उत्पन्न करने वाले विषय किस प्रकार से
१--सं० ०२०१ ।
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