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इस स्थल से विजयसेन का लम्बा भाषण प्रारम्भ होता है, जो प्रात्मकथा होने पर भी नीरस है। इसमें प्रधान रूप से तीन तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है :-- (१) जातिमद-उच्चजाति होने का अहंकार इस भव प्रौर परभव दोनों में
दुःखदायक है । (२) प्राणी को अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल जन्म-जन्मान्तर तक
भोगना पड़ता है। (३) धर्म ही इस प्राणी को कष्टों से मुक्ति देने वाला है। गृहधर्म और
मुनिधर्म का जो यथाशक्ति पालन करता है, वही शाश्वतिक सुख पाता
सिंहकुमार और धर्मघोष का वार्तालाप भी उक्त क्रम से ही प्रारम्भ हुआ है। धर्मघोष ने अपने वैराग्य का कारण बतलाते हुए अमरगुप्त की कथा सुनायी और प्रसंगवश धर्म का स्वरूप भी । यह लम्बा भाषण है, कथा को रोचकता के कारण इससे श्रोता के मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन दोनों ही कार्य होते हैं।
शिखिकुमार और विजय सिंह के कथोपकथन का क्रम भी उपर्युक्त ही हैं। प्राचार्य विजय सिंह अपनी विरक्ति की पृष्ठभूमि का निरूपण करते हुए अजित की कथा सुनाते हैं । इस कथा में भी कई अवान्तर कथोपकथन हैं।
पिंगक और विजय सिंह का वार्तालाप बहुत ही तर्कपूर्ण और स्वाभाविक है । पिंगक नास्तिक और चार्वाक सम्प्रदाय का अनुयायी है । यह आत्मा का अस्तित्व नहीं मानता। पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पांच भूतों--पदार्थो के सूक्ष्म संयोग से प्रात्मा की उत्पत्ति होती है तथा इन पांचों द्रव्यों के संयोग का जब सूक्ष्म विघटन हो जाता है, तो प्रात्मा नष्ट हो जाती है । पिंगक अपने कथन के समर्थन में उदाहरण और तर्क उपस्थित करता है। प्राचार्य विजय सिंह पिंगक के कथन का खण्डन, विरोधी तर्कों को झूठ, असंभव और असंगत सिद्ध करते हुए स्वपक्ष का मण्डन करता है । पक्ष पुष्टि के लिए उदाहरणों की कमी इनके पास भी नहीं है। इनके कथन में बचन विदग्धता और वाकचातुर्य का यथेष्ट समावेश है। दीक्षा लेने के लिए प्रस्तुत कुमार से पिंगक कहता है --
"कुमार तुम्हें किसने ठग लिया है । यहां पंचभूतों के अतिरिक्त परलोकगामी कोई जीव नहीं है, किन्तु ये भूत हो इस प्रकार स्वाभाविक रूप से परिणमन करते हैं। जिससे जीव संज्ञा कर दी जाती है। जब ये भूत विशृंखलित होते है, तो प्राणी की मतसंज्ञा हो जाती है। शरीर त्यागकर कोई प्रात्मा घड़े में बन्द चिड़िया की तरह परलोक नहीं जाती है । अतः तुम परलोक के नहीं होने पर भी मिथ्या बुद्धि करके इन स्वाभाविक सुन्दर विषय सुखों को छोड़ते हो ? प्राचार्य विजय सिंह की ओर संकेत करते हुए--अथवा आप शरीर से भिन्न प्रात्मा को दिखलाइये, अन्यथा आपका यह कथन गलत है कि मनुष्य शरीर प्राप्त करना दुष्कर है, क्योंकि मेरी दृष्टि से इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति, अप्राप्ति, पुण्य या पाप के उदय से नहीं होती है, यह तो पंचभूतों की परिणति का फल है । अतः कुमार ! आपको अाकुल होने की आवश्यकता नहीं । प्राचार्य की ओर कटाक्ष करते हुए। जो यह कहा गया है कि प्रियजनों का समागम अनित्य है, वह भी अकारण है । यतः तुम्हारे दीक्षा धारण करने पर भी यह स गम अन्यथा नहीं हो सकता है । ऋद्धि-सम्पत्ति चंचल है, इसका भी दीक्षा धारण करने से प्रतिकार नहीं हो सकता है, किन्तु उपायपूर्वक रक्षा करने से लक्ष्मी को स्थिर बनाया जा सकता
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