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समराइच्चकहा के कथानक स्रोत पर विचार करते समय हमारी दृष्टि "गुरुवयणपंकयाश्रो सोऊण" (स० पृ० ६८० ) पर जाती है । इससे अवगत होता है कि हरिभद्र के पहले भी समराइच्चकहा की कथावस्तु का ज्ञान था और यह पहले से ही " संग्गहणी गाहा" में अंकित थी । यह सत्य है कि समराइच्चकहा के हरिभद्र ने समस्त श्रागमिक साहित्य का अध्ययन, अनुशीलन और अवगाहन कर अपनी कथाओं के लिए कल्पनाएं, उपदेशतत्व एवं वर्णन प्रसंग ग्रहण किये हैं, पर प्रधानरूप से उवासगदसाम्रो, विपाकसूत्र और भगवतीसूत्र से समराइच्चकहा के लिए अनेक कल्पनाएं और वर्णन प्रसंग लिये गये हैं । इन ग्रहीत तत्वों को समराइच्चक्रहा में ज्यों-के-त्यों रूप में देखा जा सकता है । वसुदेवहिण्डी तो कथानक योजना के लिये प्रधान स्रोत हैं । मुख्य कथा के लिए उपादान सूत्र यहीं से ग्रहण किया गया है । यह सत्य है कि हरिभद्र ने वसुदेवहिण्डी से कथासूत्र ग्रहण करने पर भी उसमें अपनी कल्पना का पूरा उपयोग किया है और कथा के तानेबानों को पूरा विस्तार देकर नवीनता प्रदान की है । जिस प्रकार मणि श्राकर से निकलने पर भद्दी और सुन्दर मालूम पड़ती है पर वही खराद पर चढ़ा दी जाती है तो वह सुडौल और सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है । यही तथ्य हरिभद्र के साथ लागू है, इन्होंने प्रधान कथासूत्र वसुदेवहंडी से ग्रहण किया हैं, किन्तु उसे इतने सुन्दर और कुशल ढंग से सजाया तथा विस्तृत किया है, जिससे इनकी कथा शक्ति की निपुणता व्यक्त होती है ।
समराइच्चकहा की मूल कथावस्तु है कि गुणसेन श्रग्निशर्मा को तंग करता है, जिससे वह तापसी बन जाता है । राजा बनने पर गुणसेन संयोग से उसी तापसी आश्रम में पहुँचता है और मासोपवासी अग्निशर्मा को अपने यहां पारणा के लिए निमंत्रण देता है । गुणसेन को शिरोवेदना होने से सारा राज परिवार उसकी परिचर्या में व्यस्त है, अतः श्रग्निशर्मा पारण किये बिना ही लौट जाता है । दुबारा आग्रह कर पुनः गुणसेन उसे बुलाता हैं पर शत्र आक्रमण के कारण सेना की तैयारी हो रही है, जिसमें हाथी घोड़े से मार्ग अवरुद्ध रहने तथा अनेक प्रकार की प्रस्त-व्यस्तताओं के रहने से वह पारणा किये बिना ही लौट जाता है । तीसरी बार पुत्र जन्मोत्सव सम्पन्न करने में राजा के व्यस्त रहने से वह पूर्ववत् ही लौट जाता है। अब वह राजा गुणसेन से रुष्ट होकर बदला चुकाने के लिए निदान बांधता है और नौ भवों तक उसे कष्ट देता है । गुणसेन का जीव समरादित्य बनकर निर्वाण प्राप्त करता है और निदान दोष के कारण श्रग्निशर्मा अनन्त संसार का पात्र बनता है ।
इस मूल कथा का स्रोत वसुदेवहिडी में "कंसस्स पुग्वभवो" में आया है। बताया गया है कि कंस अपने पूर्वभव में तापसी था । इसने भी मासोपवास का नियम ग्रहण किया था । यह भ्रमण करता हुआ मथुरापुरी में श्राया । महाराज उग्रसेन ने इसे अपने यहां पारणा का निमंत्रण दिया । पारणा के दिन चित्त विक्षिप्त रहने के कारण उग्रसेन को पारणा कराने की स्मृति न रही और वह तापसी राजप्रासाद में यों ही घूमकर पारणा किये बिना लौट गया । उग्रसेन ने स्मृति श्राने पर पुनः उस तापसी को पारणा के लिए आमंत्रण दिया, किन्तु दूसरी और तीसरी बार भी वह पारणा कराना भूल गया । संयोगवश समस्त राजपरिवार भी ऐसे कार्यों में व्यस्त रहता था, जिससे पारणा कराना संभव नहीं हुआ । उस तापसी ने इसे उग्रसेन का कोई षड़यंत्र समझा और उसने निदान बांधा कि मैं श्रगले भव में इसका वध करूँगा । निदान के कारण वह उग्र तापसी उग्रसेन के यहां कंस के रूप में जन्मा । "सो किर प्रणंतरभवे बालतवस्ती प्रसि । सो मांस मांस खममाणो महुरिपुरिमागतो उट्टियाए मस-पास गहेऊण पारेइ । पगायो जातो । उग्गसेणेण यनिमंतिप्रोमज्झं गिहे भयवता पारेयव्वं । पारणाकाले वक्वित्त-चित्तस्स वीसरियो । सो वि प्रण्णत्थ भुत । एवं बितिय तइयपारणासु । सो पदुट्ठो 'उग्गसे णवहाय भवामि त्ति कयनिदाणो कालगतो उaaort उग्गसेणधरिणीए उयरे ।"
१ - - वसुदेव हिंडी - प्रट्ठावीसइयो देवकी लंभो - कंसस्सपुव्वभवो, पू० ३६८ ।
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