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कथागठन और घटनातंत्र का शैथिल्य इन कथाओं में सर्वत्र विद्यमान है । बीच-बीच में कथा प्रवाह में भी अवरुद्धता है । इस श्रेणी की निम्न कथाएं हैं :--
( १ ) वणिक कथा ( द०हा०गा० ३७, पृ० ३७-३८)। (२) घड़े का छिद्र (द०हा०गा० १७७, पृ० १८७ ) ।
(३) धन्य की पुत्र बधुएं ( उप०गा० १७२ - - १७९, पृ० १४४ ) ।
"afra " कथा का कथानक संक्षिप्त रूप में यह है कि एक दरिद्र वणिक रत्नद्वीप में पहुंचा। यहां उसने सुन्दर और मूल्यवान् रत्न प्राप्त किये। मार्ग में चोरों का भय था, अतः वह दिखाने के लिए सामान्य पत्थरों को हाथ में लेकर और पागलों की तरह यह चिल्लाता हुआ कि रत्नवणिक् जा रहा है, चला। चलते-चलते जब वह अरण्य में पहुंचा, तो उसे प्यास लगी। यहां उसे एक गंदा कीचड़ मिश्रित जलाशय मिला। यह जल अत्यन्त दुर्गन्धित और अपेय था । प्यास से बेचैन होने के कारण उसने आंखें बन्द कर बिना स्वाद लिए ही जीवन धारण निमित्त जल ग्रहण किया। इस प्रकार अनेक कष्ट सहन कर रत्नों को ले आया ।
इस कथानक में रत्न रत्नत्रय के प्रतीक हैं, चोर विषय-वासना के और वेस्वाद कीचड़ मिश्रित जल प्रासुक भोजन का । रत्नत्रय - - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की प्राप्ति सावधानीपूर्वक विषय-वासना का त्याग करने से होती है। जो इन्द्रिय निग्रही और संयमी है तथा शरीरधारण के निमित्त शुद्ध, प्रासुक भोजन को बिना राग भाव के ग्रहण करता है, ऐसा ही व्यक्ति रत्न रत्नत्रय की रक्षा कर सकता है । रत्नद्वीप भी मनुष्य भव का प्रतीक है। जिस प्रकार रत्नों की प्राप्ति रत्नद्वीप में होती है, उसी प्रकार रत्नत्रय की प्राप्ति इस मनुष्य भव में ।
" घड़े का छिद्र" शीर्षक में छिद्र योग की चंचलता या आस्रव का प्रतीक है और छिद्र को मिट्टी के द्वारा बन्द किया जाना गुप्ति अथवा संवर का। घड़ा साधक का प्रतीक है, पानी भरने वाली शुभ भावों की तथा कंकड़ मारकर घड़े में छिद्र करने वाला राजकुमार अशुभ भावों का प्रतीक है । इस लघु कथा में कथानक का विकास भी स्वाभाविक गति से हुआ है। प्रतीकों के द्वारा हरिभद्र ने मानव जीवन के चिरन्तन सत्यों की अभिव्यंजना की है ।
"धन्य की पुत्र बधुएं" कथा में जीवन शोधन के लिए आवश्यक व्रतों को अभिव्यंजना विनोदात्मक शैली में प्रकट की गई है। इस कथा में धान के पांच दाने पांच व्रतों के प्रतीक हैं, चार पुत्र बधुएं साधकों की प्रतीक हैं और धन्य गुरु का प्रतीक हूँ । गुरु अपने समस्त शिष्यों को व्रत देता है, पर जो अप्रमादी और आत्मसाधन में निरत है, वह इनकी रक्षा करता है, व्रतों को उत्तरोत्तर बढ़ाता है, किंतु जो प्रमादी हैं, वह लिये हुए व्रतों को भूल जाता है, संसार के प्रलोभन उसे साधना के मार्ग में आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे की ओर ही ढकेल देते हैं। इस कथा के वार्तालाप और घटनाचक्र मनोरम हैं । इतिवृत्तात्मकता के भीतर प्रतीकों का चमत्कार धर्म तत्वों का सुन्दर उद्घाटन करता है ।
मनोरंजन प्रधान कथाओं में अन्य तत्त्वों के साथ मनोरंजन की मुख्यता रहती हैं । यों तो सभी प्रकार की कथाओं में मनोरंजन समाविष्ट रहता है, पर इस कोटि की कथाओं में उपदेश, धर्म और नीति को गौण कर मनोरंजन प्रधान बन जाता है । इस श्रेणी में हरिभद्र की निम्न कथाएं आती हैं-
(१) जामाता परीक्षा ( उप०गा० १४३, पृ० १२९ ) । ( २ ) राजा का न्याय ( उप०गा० १२०, पृ० ९१ ) ।
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