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धुनिक काल की कहानियों के समकक्ष माना जा सकता है। प्रसाद के "श्राकाशदीप" में कथा का विशेष गुण है । इस गुण की उचित मात्रा हमें धरण और लक्ष्मी की कथा में भी मिलती है ।
यथार्थवादी अहंवाद और चरित्रहीनता की द्रवित हेय और कटु अभिव्यक्ति धरण की पत्नी लक्ष्मी में होती हैं । यह ध्यातव्य है कि इस कथा में सनातन वैर-भावना की योजना पारिवारिक जीवन के निकटतम सम्बन्ध पति-पत्नी के बीच हुई है । लक्ष्मी का पतित चारित्रिक आदर्श सामान्य नारी के चारित्रिक धरातल से गिरा हुआ है । उसकी वैर भावना का प्रस्फुटन अत्यन्त मनोवैज्ञानिक क्षण में होता है । चण्डरुद्र नामक चोर के साथ षड्यन्त्र करती हुई कहती हैं- "मेरा विवाह ऐसे व्यक्ति के साथ हुआ है, जिसे मैं नहीं चाहती हूं। यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आपकी मनोकामना पूर्ण कर सकती हूं। मेरा पति इस पास वाले देवकुल में सोया हुआ हूँ, इसे चोरी के अपराध में फंसाया जा सकता हूं"" । धरण लक्ष्मी के इस चरित्र से अनभिज्ञ हैं और चोर द्वारा त्याग किये जाने पर वह उसे पत्नीवत् पुनः अपना लेता है, यह है उसके चरित्र की उदारता । लक्ष्मी सुवदन के सहयोग द्वारा धरण को समुद्र में गिराती है तथा गला घोंट कर उसकी हत्या भी कर देना चाहती हैं । सहनशीलता की पराकाष्ठा और शारीरिक शक्ति के अद्भुत प्रभाव के कारण धरण यद्यपि जीवित रह जाता है । पत्नी का इतना कर स्वभाव और मायाचार आज भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है ।
यह कथा मात्र धर्मगाथा नहीं है, बल्कि सर्वांशतः कलात्मक कृति हैं । यह सर्वथा लोककथा है, इसमें किसी देवता या देवी पुरुष का समावेश नहीं है । इसके कार्यव्यापार सहज प्राकृतिक और मानव धर्म लाभ की प्राकांक्षा से पूर्ण हैं । हेमकुण्डल की द्वितीय शक्ति तथा कालसेन द्वारा बलि आदि देने की प्रथाओं में तत्कालीन जादू-टोने और "टोटेम" की अभिव्यक्ति इस कथा को जातीय अतीत ( Racial past ) के बिम्बों और चित्रणों से सम्पन्न करती है । जादू टोने की रहस्यात्मक शक्ति के उद्घाटन द्वारा इस कथा में एक रोमांचक संवेदन या गया है । कथा के वातावरण में श्रौषधियों और मन्त्रों को अद्भुत चमत्कारिता श्रादिम मानस (Primitive mind) की धर्म गाथात्मक अभिव्यक्ति हैं । लोकमानस की इस भूमिका से संस्कृत-मानस का विकास होता है ।
आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में धरण की पत्नी लक्ष्मी के चरित में हमें परपीड़न ( रति निम्फोनिया) की अभिव्यक्ति मिलती है । अपने पति धरण के साथ उसके सामान्य व्यवहार में इसकी स्पष्ट झलक है । मनुष्य में स्वाभाविक आक्रामक वृत्ति होती है, अनायास क्रोध उससे सम्बद्ध संवेग हैं । इस मूल प्रवृत्ति का काम प्रवृत्ति से संबंध है । लक्ष्मी जब भी धरण से अलग होती है या उससे विरोध करती है, तो नवागन्तुक की पत्नी बनकर और काम की प्रत्यक्ष तृप्ति का माध्यम ढूंढ़कर । उसका यह क्रियाकलाप निश्चयतः परपीड़न युक्त व्यवहार का द्योतक है । यौन व्यापार के प्रमुख उद्देश्य को पृष्ठभूमि में रखकर, उसका विरोध स्वतंत्र अस्तित्व पर जाता है, जो उसकी कामवृत्ति का विकृत परिणाम है । उसे कामोत्तेजना के विषय अपने पति को पीड़ा पहुंचाकर ही तृप्ति मिलती है । मानव प्रकृति के इस रूप का चारित्रिक निरूपण लक्ष्मी के चरित्र में करके हरिभद्र ने नितान्ततः अपनी मानव प्रकृति की सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की परख का प्रमाण प्रस्तुत किया है ।
१, सं० पृ० ६ । ५२०-५२१ ।
वही, पृ० ६ । ५५३ ॥
३० पु० ६ । ५०० ।
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