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मिलकर सिंहकुमार को मारने का षडयन्त्र करता है । अपने पिता को बन्दी बना लेता हँ । निर्दोष पिता के हार्दिक स्नेह को ठुकराकर अपनी विपरीत धारणा के कारण वह उन्हीं को दोषी मानता है ।
यह यथार्थवादी दृष्टि प्रागे चलकर प्रति यथार्थवादी हो जाती है । बन्दीगृह के कालुष्यपूर्ण वातावरण के चित्रण में यथार्थ वास्तविकता की जो करुणा और जुगुप्सा व्यंजक प्रतिक्रिया हुई है, वह कला की प्रति यथार्थवादी चेतना संपन्नता के कारण ही है । इस प्रकार इस कथा का समस्त शिल्प और उसकी पूर्ण उपलब्धि यथार्थ से अनुस्यूत है ।
यथार्थमूलक इस कथा की घटनाओं के मूल में भी शास्त्रीय कर्म सिद्धान्त और प्राचारमूलक विधि निषेधात्मक नियम ही कार्य करते हैं । प्रधान पात्र सिंहकुमार के जीवन में घटित संघर्ष भी बाह्य परिस्थितियों से तो उत्पन्न हैं ही, पर अन्तश्च तना भी कम सहायक नहीं है । बन्दीगृह में जब वह उपवास धारण कर लेता है तो श्रानन्दकुमार देवशर्मा नामक कर्मचारी को उसे समझाने और भोजन ग्रहण कराने के लिये भेजता है । देवशर्मा राजा सिंहकुमार को नाना प्रकार से समझाता हूँ और पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता हूँ । राजा देवशर्मा को उत्तर देते हुए कहता हूं कि मैंने यथार्थ पुरुषार्थ का त्याग नहीं किया है, बल्कि भावदीक्षा धारण की है । संल्लेखना धारण करने का यह उपयुक्त समय है । मुझे किसी भी प्रकार की संपत्ति की आवश्यकता नहीं है । न मुझे किसी का भय हैं, मैं अपनी प्रतिज्ञा पर अटल हूँ । इसी बीच आनन्दकुमार श्राता है और अपने पिता सिंहकुमार का वध कर देता है । अतः स्पष्ट है कि सिंहकुमार का संघर्ष बाहय की अपेक्षा अन्तःपरिस्थितियों पर अधिक निर्भर है ।
सिंहकुमार के चरित्र की दृढ़ता और पिता के वध करने का पुत्र का साहस ये दोनों ही बातें यथार्थवादी चरित्र की उपलब्धि हैं । सृजनात्मक मानवतावादी चेतना के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सिंहकुमार के चरित्र में सृजनशीलता के तत्त्व विद्यमान हैं । यहां सृजन का अर्थ साहसिक कार्यों और जीवन में कलात्मक अनुभूतियों को स्थान देने से है । सिंहकुमार प्रेम करता है, यह जीवन की एक सृजनात्मक अस्तित्व मूलक प्रवृत्ति हैं । इस सिद्धान्त के आगे वह झुकता नहीं, अडिग रहता है; यह सृजन का साहसिक व्यंजक पौरुष है । इस प्रकार जीवन की आस्था और व्याख्या की दृष्टि से यह कथा सफल है ।
संपूर्ण कथा का कथासूत्र मान या अहंभाव का चित्रण करता है । यद्यपि मान या श्रहं की प्रतिष्ठा इस कथा के अन्त में ही होती है, पर प्रारम्भ से ही कथा का विकास उसकी र उन्मुख हैं । शाश्वत विरोध भावना, जो समराइच्चकहा की समस्त कथात्रों की अन्तर्व्याप्त धारा है -- इस कथा का भी यही मूल विषय हँ । इसी मूल विषय को यह कथा प्रानन्द की मनोभावना में गुम्फित करती है और वह स्वयं पिता का विरोधी बन बैठता हूँ । आनन्द का प्रतिरोध मान या ग्रहं की मौलिक प्रवृत्ति पर श्राधारित है, उसका प्रस्फुटनमात्र ही परिस्थितियों से होता है । पितृघाती पुत्रों को संख्या इतिहास या साहित्य में अल्प ही प्राप्त होती हैं । श्रानन्द अपने चरित्र द्वारा पिता को निरानन्द बनाता हुआ संपूर्ण कथा को प्रखरता प्रदान करता है ।
१-- स० पृ० पु० २।१५२ ।
२-- वही, प० २।१५४ ।
३-- एद्दहमेत मे जीवियं कालो इयं संपयमणसणं- स० पृ० २ । १५५ - १६० ।
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