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________________ १४७ ततीय प्रकरण हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण इस विश्लेषण का उद्देश्य यह खोज निकालना है कि हरिभद्र की प्राकृत कथा - कृतियों में कलासौंदर्य एवं कथातत्त्वों का समावेश कितनी कुशलता से सम्पन्न हुआ है और इस कार्य के लिये उन्होंने किन-किन उपादानों को स्वीकार किया है तथा अन्तव्यति स्पन्दन और जीवन की प्रतिष्ठा कहां तक हुई हैं ? लेखक की कल्पना में मनुष्य को दय के किस विशेषरूप ने घनीभूत होकर अपने अनन्त वैचित्र्य के प्रकाश को सौन्दर्य द्वारा प्रस्फुटित किया हैं । जीवन-निर्माण की कौन-सी सामग्री प्रयुक्त है । और जीवन के बीच बिखरी हुई अनन्त विभूतियों के सौन्दर्य को किस प्रकार उद्घाटित किया है । इस विश्लेषण के आधारभूत निम्न सिद्धान्त हैं :-- द जगत् (१) जीवन की आस्था और व्याख्या । (२) जीवन में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तनों की पहचान और उनके उपचार । (३) मुख्य घटना -- जो केन्द्र भाव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखती हैं । (४) मुख्य घटना की निष्पत्ति -- कौतूहल या विस्मय तत्वों के सहारे घटना व्यापार की गतिविधि और चरम स्थिति में भावपक्ष की स्पष्टता । (५) घात-प्रतिघात -- घटना विकास के साथ सत्-असत् का संघर्ष तथा तथ्य और सत्य का संकेत । (६) मुख्य कथा का अवांतर कथा के साथ सम्बन्ध और अवांतर कथाओंों का सौन्दर्य विश्लेषण । (७) परिस्थिति नियोजन के साथ परिवेशमण्डल - - समग्र चित्र में श्राभा विशेष का नियोजन | (८) चरित्र स्थापत्य - - आशा-निराशाओं के द्वन्द्व, विभिन्न परिस्थितियों के बीच पात्रों के भाव और विचार एवं सामाजिक और वैयक्तिक समस्याओं के चरित्रगत समाधान । (e) शैली - - चित्रात्मक, नाटकीय और समन्वित शैलियों का विश्लेषण । (१०) लक्ष्य और अनुभूति । ( ११ ) प्रभावान्विति । समराइच्चकहा रामराइच्चकहा में नौ भव या परिच्छेद हैं । प्रत्येक भत्र को कथा किसी विशेष स्थान, काल और क्रिया की भूमिका में अपना पट परिवर्तन करती है । जिस प्रकार नाटक में पर्दा गिरकर या उठकर संपूर्ण वातावरण को बदल देता है, उसी प्रकार इस - कथा कृति में एक जन्म की कथा अगले भव की कथा के आने पर अपना वातावरण, काल और स्थान को परिवर्तित कर देती है । संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता कि सामान्यतः प्रत्येक भव की कथा स्वतंत्र हैं, अपने में उसकी प्रभावान्विति नकोलो । कथा की प्रकाशमान चिनगारियां ग्रपने भव में ज्वलन कार्य करती हुई, अगले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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