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को सन्तुलित रखता है । सामान्यतः मध्यबिन्दु को चरमसीमा के नाम से भी अभिहित किया जाता है । जिन कथाओं में चरमसीमा जितनी अधिक मध्य भाग में उभरती हैं, उन कथाओं का सौन्दर्य उतना ही अधिक सन्तुलित रहता है । जो कथाकार कथा के मध्यबिन्दु को इधर-उधर हटाकर भी रोचकता बनाए रखता , वही अपनी कृति में सफल होता है ।
कथारम्भ करते समय बड़ी सावधानी की आवश्यकता होती है । नाटकीय, चित्रविधान, कुतूहलपूर्ण अथवा इतिवृत्तात्मक में से किसीभी पद्धति पर कथा का आरम्भ किया जा सकता है । प्राकृत कथाओं में अधिकतर कथारम्भ करने की पद्धति इतिवृत्तात्मक ही है । इस पद्धति में इतिवृत्त और विवरण में आकर्षण न होने पर रुक्षता उत्पन्न हो जाती है । आरम्भ की यह रुक्षता कथा को बोझिल बना देती है। जहां आरंभिक स्थल में जिज्ञासा, आश्चर्य, रोमांचकता की अच्छी प्ररोचना दिखाई जाती है, वहां आरम्भ में ही कुतूहल उत्पन्न हो जाता है । झटके के साथ आरम्भ होकर कथा बढ़ती है और पाठक के भाव और वृत्तियों को अपने साथ लिये चलती है ।
कथा का अन्त इस प्रकार होना चाहिये, जिसमें सारा सौन्दर्य पूंजीभूत होकर एक विशेष प्रकार की संवेदनशीलता उत्पन्न कर सक े । आलोचनाशास्त्र की दृष्टि से इसी को प्रभावाविति कहा जाता है । कथा के अन्त करने की कई पद्धतियां प्रचलित हैं-- पूर्णताबोधक, लघुप्रसारी, नाटकीय और इतिवृत्तात्मक । पूर्णताबोधक अन्त का तात्पर्य यह है कि कथा का अन्त इस प्रकार का होना चाहिये, जिससे चरित्र और परिस्थितियों से प्रेरित होकर किस वातावरण में किसने क्या किया, इस संबंध में उत्पन्न जो भी कुतूहल या जिज्ञासा होती है, उसका पूरा-पूरा समाधान अन्त में हो जाय । प्राकृत कथा साहित्य में इस प्रकार का तन्त्र तरंगवती, समराइच्चकहा और कुवलयमाला में देखा जाता है । महीपाल और श्रीपाल कथाओं के अन्त भी प्रायः इसी पद्धति पर हुए हैं ।
लघुप्रसारी अन्त का अभिप्राय है संक्षेप में कथा की समाप्ति । कार्य-कारण के विस्तार में तो पाठक का मन और अभिरुचि लगी रहती हैं, पर परिणाम का संकेतमात्र यथेष्ट होता है । परिणाम का विस्तार दिखलाने में कोई आकर्षण की वस्तु शेष नहीं रहती । अतः कथा का अन्त जितना आकस्मिक और लघु होगा, उतना ही रचनाकौशल सफल मालूम पड़ेगा ।
नाटकीय अन्त का अभिप्राय है संवाद वैदग्ध्य शैली में मनोरंजक ढंग से कथा का अन्त होना। यहां कुशलता इस बात की है कि कथा का अन्त तो संक्षेप में हो पर मानसमन्थन के लिये वह तीव्र उद्दीपन का कार्य कर सके ।
इतिवृत्तात्मक अन्त की प्रक्रिया का आलम्बन प्राकृत कथा साहित्य में अधिक ग्रहण किया गया है । इस पद्धति में चरित्र का उत्कर्ष या जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का उत्कर्ष स्थापित कर लेने के उपरान्त कुछ बातें उसी के संबंध में कह देनी चाहिये । प्राचीन रूढ़िवादी सभी कथाओं में इतिवृत्तात्मक अन्त ही देखा जाता है । अतः वहां रूपरेखा की मुक्तता है, वहां कथा के आरम्भ, मध्य और अन्त के संबंध में कोई विशेष नियम नहीं मिलते हैं । इसी कारण प्राकृत कथाओं में रूपरेखा की मुक्तता एक स्थापत्य बन गयी है । इस स्थापत्य में प्रायः सेटिंग की एकरूपता भी मिलती है । कथा को फिट करने के लिये या उसे ढालने के लिये ऐसा निश्चित कोई ढांचा अथवा टकशाला नहीं है, जिसके द्वारा उसके अवयवों को चुस्त किया जा सके ।
अधिकांश प्राकृत कथाकारों ने सहज पद्धति में कथा लिखी है । उनमें कोई विशेष रंग भरने का प्रयास नहीं किया है । इतना होने पर भी इतिवृत्तात्मक पद्धति में प्रायः कथाएं लिखी गई हैं और अन्त भी इसी पद्धति में हुआ है । पर इतना सत्य है कि
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