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________________ १२६ आता है, उसी प्रकार प्राकृत कथाओं में नायक या नायिका का जन्म, शिक्षा और कलाप्रवीणतारूप कथा का आमुख रहता है । काव्य और वर्णन की दृष्टि से यह स्थल बहुत ही रमणीय रहता है, द्वार के वैभव के समान घटना भव का सन्निवेश इसी स्थल पर किया जाता है । जिस प्रकार राजप्रासाद का भव्य तोरण द्वार दर्शक के मन को आनन्दित करता है, उसी प्रकार नायक की किशोरावस्था और उस समय के उसके चमत्कारपूर्ण कार्य पाठक को अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नहीं रहते । द्वार प्रकोष्ठ में प्रविष्ट दर्शक पहली कक्षा पारकर दूसरी कक्षा में प्रविष्ट होता है और यहां से उसे राजभवन का बाह्य आस्थान- मंडप दिखलायी पड़ने लगता है । प्राकृत कथाओं में वयस्क नायक किसी निमित्त को प्राप्त कर अपने पूर्व जन्म की नायिका को समझ जाता है, उसके प्रति उसके हृदय में अपूर्व आकर्षण उत्पन्न होता है, अतः अपनी प्रेमिका के साथ इस भव में भी प्रणय संबंध स्थापित करने का निश्चय करता है । वह नायिका की प्राप्ति के लिये प्रस्थान कर देता है । तीसरी कक्षा में प्रविष्ट होते ही धवलगृह के साथ राजा के आस्थान- मंडप में पहुंच कथाओं में यह जाता है। यहां अपूर्व सौन्दर्य और साज-सज्जा विद्यमान रहती हैं । स्थिति उस समय आती है, जब नायक और नायिका का विवाह हो जाता है, वे विलास, और वैभव का उपभोग करने लगते हैं । चौथी कक्षा में अन्तःपुर का सारा सौन्दर्य विद्यमान रहता है । कथाओं में नायक या नायिका किसी केवली का संयोग पाकर जीवन से विरक्त हो जाते हैं और आत्मकल्याण करन े में प्रवृत्त हो जाते हैं । जिस प्रकार राजप्रासाद में अलिन्द, कक्ष्याएं, स्तम्भ, आस्थान- मंडप, धवलगृह, देहली, चतुःशाल, वीथियां, अंगणवेदिका, सोपान, प्रग्रीवक, वासगृह, सौध, प्रासादकुक्षियां, चन्द्र कालिका भवनोद्यान, दीर्घिका, वापियां, आहारमंडप, व्यायामभूमि, आस्थानमंडप, हिमगृह, कुमारी भवन, श्री मण्डप प्रभृति अलंकरण विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार कथा प्रासाद में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के वर्णन, नगर, ग्राम, सरोवर, प्रासाद, दीर्घिका, ऋतु, वन, पर्वत आदि के वर्णन के साथ पात्रों के अन्तरंग, भावों, विचारों और विकारों के विश्लेषण, विवेचन किये जाते हैं। प्राकृत कथाकारों न े उस युग के मानस भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर की है, जिस उच्च धरातल पर पात्रों को प्रतिष्ठित किया है, वह धरातल सभी वर्ग के पात्रों के लिये स्पृहणीय है । जीवनानुभव एवं तत्त्वावलोकन, इन दोनों को कथा के ठाट में निर्मित किया है । अतः प्राकृत कथाओं की वर्णन प्रणाली तथा घटनाओं और आख्यानों के निवेश ठीक राजप्रासाद के समान है । अलंकरण और कथा की बारीकियां राजप्रासाद की पच्चीकारी से कम नहीं हैं । ८ । रूपरेखा की मुक्तता -- प्राकृत कथा साहित्य में निर्धारित किसी टेकनीक का यवहार नहीं किया गया है । कथा के कहने में कथाकार को विशेष आयास नहीं करना पड़ता । कथा कहीं से भी आरम्भ होकर कहीं भी अन्त को प्राप्त हो सकती है । घटनाएं घटित नहीं होती हैं, बल्कि घटी हुई घटनाओं को कहा जाता है । किस्सागोई इतनी अधिक रहती हैं, जिससे प्रत्येक पंक्ति या अनुच्छेद से पृथक् कथा कही जा सकती है । कथा साहित्य के आधुनिक स्थापत्य में सामान्यतः आदि अन्त का आधार - आधेय संबंध बताया गया है। अन्त प्रतिपाद्य है तो आरम्भ उसकी पूर्व पठिका | अन्त में जा कहता होता है, उसको भूमिका आरम्भ में स्थिर कर देनी पड़ती है । कथा के इन दोनों छोरों को जितना संभाला जाता है, कथा को गोलाई में उतना ही अधिक तनाव उत्पन्न होता है । कथा का मध्यस्थान उस गोलाई का वह मध्यभाग होता है, जो सारी गोलाई ९---२२ एडु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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