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२ । संस्कृत की चम्पूविधा का विकास शिला लेख प्रशस्तियों की अपेक्षा गद्य-पद्य मिश्रित प्राकृत कथाओं से मानना अधिक तर्कसंगत है । यतः प्राकृत में कथाओं को रोचक बनाने के लिये गद्य-पद्य दोनों का ही प्रयोग किया गया है । वस्तुतः पद्य भावना का प्रतीक है और गद्य विचार का । प्रथम का सम्बन्ध हृदय से हैं और द्वितीय का मस्तिष्क से । श्रतएव प्राकृत कथाकारों ने अपने कथन की पुष्टि, कथानक के विकास, धर्मोपदेश, सिद्धान्त निरूपण एवं कथाओं में प्रभावोत्पादकता लाने के लिये गद्य में पद्य की छोंक और पद्य में गद्य की छोंक लगायी है । संस्कृत में त्रिविक्रम भट्ट के मदालसाचम्पू और नलचम्पू से पहले का कोई चम्पू ग्रन्थ नहीं मिलता । यद्यपि दंडी ने चम्पू की परिभाषा दी है, पर प्राकृत में दंडी के पहले ही गद्य-पद्य मिश्रित शैली की रचनायें रही हैं । समराइच्चकहा और कुवलयमाला इस मिश्रित शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । हमें ऐसा लगता है कि दंडी ने चम्पू की परिभाषा प्राकृत कथानों के आधार पर ही लिखी 1 संभवत: तरंगवती भी मिश्रित शैली में लिखी गयी होगी ।
३ । प्राकृत कथाएँ लोककथा का श्रादिमरूप हैं । वसुदेव हिण्डी में लोक कथाओं का मूल रूप सुरक्षित है । गुणाढ्य की वृहत्कथा, जोकि पैशाची प्राकृत में लिखी गयी थी, लोक कथाओं का विश्वकोष है । अतः लोक कथाओं के विकास और प्रसार में प्राकृत कथा साहित्य का योगदान उल्लेखनीय है । " हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास " में बताया है. "अपभ्रंश तथा प्रारम्भिक हिन्दी के प्रबन्ध काव्यों में प्रयुक्त कई लोक कथात्मक रूढ़ियों का दस्रोत प्राकृत कथा साहित्य हो रहा है । पृथ्वीराजरासो आदि आदि कालीन हिन्दी काव्यों में ही नहीं, बाद के सूफी प्रेमाख्यान काव्यों में भी ये लोक कथात्मक रूढ़ियां व्यवहृत हुई हैं । तथा इन कथाओं का मूलस्रोत किसी न किसी रूप में प्राकृत कथा साहित्य में विद्यमान हैं ।"
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४ । पशु-पक्षी कथाओं का विकास भी प्राकृत कथायों से हुआ है । संस्कृत में गुप्त साम्राज्य के पुनर्जागरण के पश्चात् नीति या उपदेश देने के लिये पशु-पक्षी कथाएं गढ़ी गयी हैं । पर नायाधम्मक हाम्रो में कुएं का मढ़क, जंगल के कीड़े, दो कछ ुए आदि कई सुन्दर पशु कथाएं अंकित हैं । प्रचार और धर्म का उपदेश पशु एवं प्राणियों के दृष्टांत देते हुए नाना प्रकार की कथाओंों के द्वारा दिया गया है । नायाधम्मकहा पशु-पक्षी कथाएं स्वयं भगवान महावीर के मुख से कहलायी गयी हैं । निर्युक्तियों में हाथी, बानर आदि पशुत्रों की कई कथाएं उपलब्ध हैं । अतः डा० ए० वी० कोथ ने अपने "संस्कृत साहित्य का इतिहास" में जिस संभावना का खंडन किया था, वह संभावना बिलकुल यथार्थ है । इन्होंने लिखा है -- "पशुकथा के क्षेत्र में प्राकृत की पूर्व - स्थिति के पक्ष की पुष्टि में और भी कम कहा जा सकता है 1 हमारा विश्वास हैं कि पंचतन्त्र तथा अन्य पशु-पक्षियों की कथाएं प्राकृत कथाओं की ही देन हैं ।
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५ । प्राकृत कथाओं में ऐहिक समस्याओं के चिन्तन, पारलौकिक समस्याओं के समाधान, धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण, अर्थनीति - राजनीति के निदर्शन, जनता की व्यापारिक कुशलता के उदाहरण एवं शिल्पकला के सुन्दर चित्रण हैं ।
६ । प्राकृत कथायें भूत को ही नहीं, वर्तमान की भी हैं । कथाओं के प्रारम्भ में सिद्धान्त नहीं प्राते, बल्कि मध्य में सिद्धान्तों का सन्निवेश किया जाता है ।
७ । प्राकृत कथाओं में मानवता के पोषक दान, शील, तप और सद्भाव रूप धर्म का निर्देश है ।
१- पं० सा० उ० पृ० ५१ ।
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