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________________ ६६ श्रीपाल वहां कुछ दिनों तक रहा। अनन्तर अपने कुल गौरव को प्राप्त करने के हेतु वह माता और पत्नी से प्रदेश लेकर विदेश चला गया। यहां उसे रासायनिक पदार्थ, जलतारिणी और परशास्त्रनिवारिणी तन्त्र शक्तियां प्राप्त हुई । श्रीपाल ने इस यात्रा में मदन मंजूषा और भवन मंजरी से विवाह किया तथा राज्य भी प्राप्त कर लिया। समीक्षा इस कथा में धार्मिक उपन्यास के सभी गुण हैं । पात्रों के चरित्र का उत्थान-पतन कथा प्रवाह की गति में विभिन्न प्रकार के मोड़, सरसता और रोचकता श्रादि गुण वर्त्तमान हैं । कथावस्तु और कथानक गठन की दृष्टि से इस धार्मिक उपन्यास में प्रासंगिक कथाओं का गुम्फन बड़ी कुशलता साथ किया गया है । पृथ्वीपाल जंसा निष्ठुर पिता, जो रुष्ट होकर अपनी कन्या को कोढ़ी को समर्पित कर देता है, आधुनिक यथार्थवादी पात्र है। मां के हृदय की ममता और पिता के हृदय की कठोरता रूप विरोधाभास का सुन्दर समन्वय हैं । भाग्यवादिनी मदनसुन्दरी भी प्राधुनिक अप-टू-डेट नारी से कम नहीं हैं । उसमें पूर्व विश्वास और श्रात्मबल हैं । लेखक ने अपने युग की परम्परा के अनुसार श्रीपाल के कई विवाह कराकर उसकी चारित्रिक विशेषताओं को उभड़ने नहीं दिया है । धवल सेठ जंसे कृतघ्नी पात्रों की आज भी कमी नहीं है । ऐसे निम्न स्वार्थी व्यक्ति सदा से समाज के लिए कलंक रूप रहते आये हैं । श्रजितसेन जैसे राज्य लम्पटी व्यक्ति और मतिसागर जैसे विश्वासभाजन श्राज भी विद्यमान हैं। राजकुमारी मदनमंजरी का त्याग और मानसिक द्वन्द्व किसी भी कथाकृति के लिए उपकरण बन सकते हैं । पात्रों की चारित्रिक दुर्बलताओं और सबलतानों का चित्रण बड़ी व्यापकता और गहराई के साथ किया गया है । इस कथा कृति में भावुकता को उभारने की पूरी शक्ति वर्तमान है। दूधमुहे श्रीपाल का अपने चाचा के अत्याचारों और श्रातंकों से प्रातंकित हो मां के साथ जंगल में चला जाना और वहां कुष्ठ रोगियों के सम्पर्क में रहने से उम्बर कुष्ठ विशेष से पीड़ित होना प्रत्येक पाठक को द्रवित करने में समर्थ है । दूसरी ओर अपनी सुन्दरी और गुणवती कन्या की स्पष्टवादिता से रुष्ट हो कोढ़ी से उसे व्याह देना भी हृदयहीनता का परिचायक हैं । जीवनदर्शन को लेखक ने अपनी इस कथाकृति में समझाने का पूरा यत्न किया है । परिवार का स्वार्थ के कारण विघटन होता है और यह विघटित परिवार सदा के लिए दुःखी हो जाता हैं । श्रतः सामाजिक सम्बन्धों को स्थिर रखने के लिए समाज के सभी घटकों और उनकी प्रतिक्रियाओं को उदार भाव से स्थान देना होगा। प्रेम, सेवा, सहयोग, सहिष्णुता, अनुशासन, श्राज्ञापालन और कर्त्तव्यपालन आदि गुणों को जीवन में अपनाये बिना व्यक्ति स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं कर सकता है । श्रीपाल निरन्तर श्रम करता है, जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास भी करता है और साथ ही अपने जीवन में संयम को अंगीकार करता है, तभी उसे सिद्धि प्राप्त होती हैं । इस कृति में सहिष्णुता और साहस का सुन्दर आदर्श उपस्थित किया गया है। मदनसुन्दरी अपने साहस और त्याग के बल से ही अपने पति तथा उसके सात सौ साथियों को स्वस्थ बनाती है । उसकी धार्मिक दृढ़ प्रास्था ही उसके जीवन में संबल बनती है । इस प्रकार लेखक ने जीवन का सन्देश भी कथा के वातावरण में उपस्थित किया है । रयणसहर निका इस कथा ग्रन्थ के रचयिता जिनहर्ष सूरि हैं । इन्होंने अपने गुरु का नाम जयचन्द मुनीश्वर बतलाया है। इस कथा ग्रन्थ की रचना चित्रकूट नगर में हुई है। जिनहर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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