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दिखलायी पड़ती है। जिस प्रकार मिट्टी के बने कच्चे घड़े जल के छोटे पड़ते ही टूट जाते है, उसी प्रकार संवेग के श्रवण से सहृदयों के हृदय द्रवीभूत हो जाते हैं। संवेगरस को प्राप्ति के अभाव में काय क्लेश सहन करना या श्रुताध्ययन करना निरर्थक है । लेखक ने सभी पाख्यानों और दृष्टान्तों में उक्त उद्देश्य की एकरूपता रखी
__ जीवन के प्रभाव, चारित्रिक दुर्बलताएं एवं सांसारिक कमियों का निर्देश कथा के
म से नहीं हो पाया है। कयारस में भो तरलता हो पायो जातो है, गाहासन नहीं। सूच्य या सांकेतिक रूप में घटनाओं का न पाना हो इसके कयारूप में अरोचकता उत्पन्न करता है। इतना होने पर भी इस कृति में जोवन के स्वस्थ रूप का उद्घाटन पौराणिक पात्रों द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से हुआ है। प्रत्येक द्वार के पाख्यान अलग-अलग रहने पर भी सब एक सूत्र में पिरोये हुए हैं।
नाणपंचमी कहा
इस कथा ग्रंथ के रचयिता महेश्वर सूरि है। महेश्वर सूरि नाम के पाठ प्राचार्य प्रसिद्ध है। ज्ञानपंचमोकथा के रचयिता महेश्वर सूरि के सम्बन्ध में निम्न प्रशस्ति उपलब्ध है:
दोपक्खुज्जोंयकरो दोसासंगण वज्जिो प्रभो ।
सिरिसज्जगउज्मामो अउव्वचंदुव्व अक्खत्थो ॥ सीसेण तस्स कहिया दस विकहाणा इमे उ पंचमिए ।
सूरिमहे सरएणं भवियाण बोहणठ्ठाए ॥ इससे स्पष्ट है कि महेश्वर सूरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे । ज्ञानपंचमी कथा अथवा पंचमी माहात्म्य की पुरानी से पुरानी ताड़पत्रीय प्रति वि० सं० ११०६ को उपलब्ध होती है । अतः ज्ञानपंचमी का रचनाकाल वि० सं० ११०९ से पहले है।
ज्ञानपंचमी कथा में भविष्यवत्त का प्राल्यान माया है । इसी प्राख्यान को बीज मानकर धनपाल ने अपभ्रंश में-भविसय तकहा--नामक एक सुन्दर कथाग्रंथ लिखा है, जो अपभ्रंश का महाकाव्य है । डा० याकोवी के अनुसार भविसयत्त कहा की रचना १०वीं शती के बाद ही हई होगी। डा० भायाणी ने स्वयम्भ के बाद और हे के पहले धनपाल का समय माना है। श्री गोपाणीजी ने लिखा है--"भविसयत कहा-- ना रचनार धनपाल ने विन्टरनित्म, याकोबी ने अनुसारो, दिगम्बर जैन श्रावक कह छ धर्कटवंश एज उपके श ऊकेशवंश अने ऊकेश एटले प्रोसवालवंश एवं पण कथन जोवामां आवे छे सारांश ए के विक्रमनी अगोप्रारमी सदीयां के ते पहलांथई गयेला श्वेताम्बराचार्य श्री महेश्वर सूरि विरचित प्राकृत गाथामय पंचमी कथाना दसमा कथानक भविष्यदत्त उपरथी ईसवी सननी बारमो सदीयां थयेल मनाता धर्कटवंश वणिक दिगम्बर जैन धनपाले भविस्सयत्तकहा अथवा सुयपंचमीकहा अपभ्रशभाषामां रची"५ ।
१--ज्ञान० पं० प्रस्तावना, पृष्ठ ८-६ । २--ज्ञान पं० १०१४६६-४६७ गा० ३--ज्ञान पं० प्रस्तावना,पृष्ठ ७-८ ४--अपभ्रश साहित्य, पृ.० ६५ ५-ज्ञान पं० प्रस्तावना, पृ० ३
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