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चमत्कार और कौतूहल को बनाये रखने के लिए प्ररोचन शैली को अपनाया है । इन धार्मिक कथाओं में भी शृंगार और नीति का समावेश विपुल परिमाण में हुआ हैं, जिससे कथाओं में मनोरंजक गुण यथेष्ट मात्रा में वर्तमान है ।
टीकायुगीन प्राकृत कथाओं में जिस संक्षिप्त शैली को अपनाया गया था, उसी शैली का पूर्णतया परिमार्जन इन कथाओंों में पाया जाता है । लघु कथाओं में कथाकार लघुकथावों का समावेश पूर्णरूप से किया है । वातावरणों के संयोजन में कथाकार ने पूर्व कुशलता का प्रदर्शन किया है ।
संवेग रंगशाला
इस कथा ग्रंथ को रचयिता जिनेश्वर सूरि के शिष्य जिनचन्द्र हैं । इन्होंने अपने लघु गुरुबन्ध् श्रभयदेव की अभ्यर्थना से इस ग्रंथ की रचना वि० स० ११२५ में की है । नवांगवृत्तिकार प्रभयदेव सूरि के शिष्य जिनबल्लभ सूरि ने इसका संशोधन किया है । इस कृति में संवेगभाव का प्रतिपादन किया गया है। इसमें शांत रस पूर्णतया व्याप्त हँ ।
परिचय और समीक्षा
संवेगभाव का निरूपण करने के लिए इस कृति में अनेक कथाओं का गुम्फन हुना है । मुख्यरूप से गौतम स्वामी महासेन राजर्षि की कथा कहते हैं । राजा संसार का त्यागकर मुनिदीक्षा धारण करना चाहता है । इस अवसर पर राजा और रानी के बीच संवाद होता है । रानी अपने तर्क के द्वारा राजा को घर में हो बांधकर रखना चाहती है । वह तपश्चरण, उपसर्ग और परीषह का प्रातंक दिखलाती है, पर राजा महासेन संसार बन्धन को तोड़ दीक्षा धारण कर लेता है ।
लेखक ने आराधना के स्पष्टीकरण के लिए मथुराजा और सुकौशल मुनि के दृष्टान्त उपस्थित किये हैं। आराधना के स्वरूप विस्तार के लिए चार मूल द्वार बताये गये हैं । अनन्तर अर्हत्, लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, मनोशिक्षा, अनियतविहार, राजा और परिणाम नाम के द्वारों को स्पष्ट करने क े लिए क्रम से वंकचूल, कूलवाल, मंगु आचार्य, श्रेणिक, मिराजा, वसुदत्त, स्थविरा, कुरुचन्द्र, और वज्रमित्र के कथानक दिये गये हैं । जिनभवन, जिनविम्ब, जिनपूजा और पौषधशाला आदि दस स्थानों का निरूपण किया गया है ।
कथानकों के रहने पर भी इस कृति में दार्शनिक तथ्यों की बहुलता है । प्राचार और धर्म सम्बन्धी सिद्धांतों का विवेचन लेखक ने खूब खुलकर किया है । यही कारण हैं कि इस कृति में कथात्मक परिवेशों का प्रायः अभाव है । ऐसा मालूम होता है कि उपासना, आराधना प्रभृति को सार्वजनिक बनाने क े लिए लेखक न े कथानकों को पौराणिक शैली में अपनाया है । पात्रों के नाम और उनके कार्य तो बिल्कुल पौराणिक हैं ही, पर शैली भी टीकायुगीन कथाओं के समान ही है । इतने बड़े ग्रंथ में प्रायः कथा प्रवाह या घटनाओं में तारतम्य नहीं आ पाया है । पात्रों के चरित्रों का विकास भी नहीं हुआ है। हां, पात्रों के विचार और मनोवृत्तियों का कई स्थलों पर सूक्ष्म विश्लेषण विद्यमान है ।
...उद्देश्य की दृष्टि से यह कृति पूर्णतया सफल हैं । लेखक ने सभी कथानकों और पात्रों को एक ही उद्देश्य के ताग में बांध दिया है । संवेग की धारा सर्वत्र प्रवाहित
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