________________
खीकार किया है मुझे बड़ा ही हर्ष है कि पण्डित जी ऐसे विषय को बड़ी सरल भाषा में उपस्थित करके एक महान् उपकार किये हैं। देखिये पुस्तक के पृ० १६८ में कैसे सुन्दर रूप से यह प्रकट किया गया है कि 'परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक स्थान में विधान करना-इस प्रकार का स्याद्वाद का स्वरूप जैन दर्शन को अभिमत नहीं। किंतु अनन्त धर्मात्मक वस्तु में अपेक्षा कृत भेद से जो २ धर्म रहे हुए हैं उनको उसी २ अपेक्षा से वस्तु में स्वीकार करने की पद्धति को जैन दर्शन, अनेकान्तवाद अथवा स्याहाद के नाम से उल्लेख करता है, इत्यादि।
आशा है कि जैन और जैनेतर दर्शन प्रेमी सज्जन इस पुस्तक के हर पृष्ठों से लाभ उठायेंगे। मेरे विचार में यह पुस्तक बंगला, गुजराती, अंग्रेजी, जर्मन इत्यादि भाषाओं में भी अनुवाद कराने योग्य है। मुझे विश्वास है कि मण्डल की ओर से अवश्य इसके लिये प्रबन्ध किया जायगा और ऐसा होने से ही अजैन विद्वानों में भी इस पुस्तक का विशेष प्रचार होगा। मैं ग्रन्थकार, प्रकाशक और सहायक महाशयों को अंतःकरण से बधाई देता हूँ कि जिन लोगों की सम्मिलिन शक्ति से आज यह अमूल्य पुस्तक हस्तगत हुआ है।
ता०२४।७।२८ ।
पूरनचन्द नाहर
M. A. B. L. वकील-हाईकोर्ट, कलकत्ता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org