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अथवा यूं कहना चाहिये कि वह धर्मों के अतिरिक्त धर्मी की सत्ता का ही स्वीकार नहीं करता । उसका कथन है कि हार मुकुट और कटक कुंडलादि जितने भी सुवर्णरूप द्रव्य के धर्म कहे जाते हैं वे ही सत्य हैं उनके अतिरिक्ति अनुगत रूप से प्रतीत होने वाला सुवर्णरूप धर्मी कोई भिन्न वस्तु नहीं। इस प्रकार धर्मों के अतिरिक्त धर्मी की सत्ता को मानने वाले सांख्य मतावलम्बी के समक्ष एक विलक्षण युक्ति से ही धर्मी की सत्ता का बौद्ध खण्डन करता है वह कहता है कि यदि कटक कुण्डल और हार मुकुटादि धर्मों के अतिरिक्त सुवर्ण नाम का . कोई धर्मी द्रव्य हो तो उसकी उक्त हार कुण्डलादि धर्मों में अनुगत रूप से प्रतीति नहीं होनी चाहिये । एवं उत्पाद व्ययशील हार कुण्डलादि धर्मों की अतीत और अनागत अवस्था काल में भी यदि सुवर्णरूप द्रव्य को अनुगततया सत्ता स्वीकार की जाय तो वह चिति शक्ति की तरह कूटस्थ सिद्ध होगा, ऐसा होने पर उसमें परिणति नहीं हो सकती । जिस प्रकार प्राकृत गुणों के अन्यथा, अन्यथा रूप में परिणत होने पर भी चिति शक्ति अपने स्वाभाविक रूप से च्युत नहीं होती किन्तु निजी कौटस्थ्य नित्य खरूप में ही सदा स्थित रहती है उसी प्रकार सुवर्ण-द्रव्य को भी कौटस्थ्य प्राप्त होगा अर्थात् वह भी चिति शक्ति की तरह अपरिरणामी ही सिद्ध होगा । परन्तु यह आपको अभीष्ट नहीं इसलिये
(१) जिस युक्ति के द्वारा धर्मी की सत्ता प्रमाणित होती हो उसी युक्ति के द्वारा धर्मी का मण्डन करना यह बौद्ध की अपूर्व चातुरी का एक अपूर्व नमूना है ?
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