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प्रदर्शन और उसको प्रतिवादात्मक आलोचना करते समय बहुधा साम्प्रदायिक विचारों से हो काम लिया है अर्थात् साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण ही कितने एक विद्वानों ने अनेकान्तवाद को संदिग्ध तथा अनिश्चित वाद कह कर उसे पदार्थ निर्णय में सर्वथा अनुपयोगी और उन्मत्तपुरुषों का प्रलाप मात्र बतलाया है । (१) परन्तु हमारी धारणा इसके प्रतिकूल है । हमारे विचार में तो अनेकान्त वाद का सिद्धान्त बड़ा ही सुव्यवस्थित और परिमार्जित सिद्धान्त है। इसका स्वीकार मात्र जैन दर्शन ने ही नहीं किया किन्तु अन्यान्य दर्शन शास्त्रों में भी इसका बड़ी प्रौढ़ता से समर्थन किया गया है । अनेकान्त वाद वस्तुतः अनिश्चित एवं संदिग्धवाद नहीं किंतु वस्तु स्वरूप के अनुरूप सर्वांग पूर्ण एक सुनिश्चित सिद्धान्त है । इसी विषय में हम अपने पर्यालोचित विचारों को मध्यस्थ पाठकों के समक्ष उपस्थित करते हैं। आशा है पाठकगण हमारे विचारों को निस्पक्षतया विवेकदृष्टि से ही अवलोकन करने की कृपा करेंगे।
(१) देखो - ब्रह्मसूत्र २ - २ - ३३ का - शांकरभाष्य, विज्ञान भिक्षुका विज्ञानामृत भाष्य, श्रीकंठ शिवाचार्य का भाष्य, बल्लभाचार्य का अणुभाष्य, और रामानुजाचार्य का श्रीभाष्य भादि प्रन्थों का उल्लेख । इनके लेख पर जो कुछ वक्तव्य होगा उसका जिकर अन्त के परिशिष्ट प्रकरण में किया जावेगा ।
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