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परन्तु विचार करने से भास्कराचार्य का यह कथन कुछ युक्ति युक्त प्रतीत नहीं होता, "वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है" जैन दर्शन के इस सिद्धान्त का यह अर्थ नहीं कि पदार्थ व्यवस्था के लिये उपयुक्त किये गये शब्दों में भी हम अनेकान्त शब्द का ही मनमाने अर्थों में व्यवहार करें। इस प्रकार तो किसी दर्शन का भी कोई सिद्धान्त स्थिर नहीं हो सकता । इस रीति से अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का प्रतिवाद करना, निस्सन्देह साम्प्रदायिक व्यामोह और विशिष्ट पक्षपात है । किसी सिद्धान्त का मनमाना स्वरूप कल्पना करके उसकी अवहेलना करनी न्यायोचित नहीं कही जा सकती । वेदान्त दर्शन के अन्यान्य भाष्यों और टीकाओं में भी प्रतिवाद की यही शैली है जिसकी आलोचना ऊपर की जा चुकी है इसलिये उनका पृथक उल्लेख करना अनावश्यक है तथा उन लेखों पर विचार करना भी पिष्टपेषण है ।
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ॐ
शिवमस्तु सर्वजगत: ।
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